मीडिया कभी भी खुले तौर पर इस बात को स्वीकार नहीं करेगी कि हालिया सालों के सबसे बड़े और महामारी के बीच सबसे बेहतरीन ढंग से आयोजित हुए जिस शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन की गवाह दुनिया बनी उसने एक बड़ी जीत दर्ज की है

यह एक ऐसी जीत है जो संघर्ष की विरासत को आगे ले जाती है. महिला, पुरुष, आदिवासी और दलित समुदायों सहित, देश के सभी किसानों ने इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. और संघर्ष की ठीक उसी भावना को हमारे किसानों ने आज़ादी के 75वें वर्ष में, दिल्ली की सीमाओं पर एक बार फिर से दिखाया है.

प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की है कि वह इस महीने की 29 तारीख़ से शुरू हो रहे संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में, कृषि क़ानूनों को वापस ले रहे हैं और उन्हें निरस्त करने जा रहे हैं. उनका कहना है कि 'अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद, किसानों के एक वर्ग' को मनाने में विफल रहने के बाद, वह कृषि क़ानूनों को वापस ले रहे हैं. ध्यान दें कि उनका कहना है कि वह किसानों के केवल एक वर्ग को मनाने में असफल रहे कि ये तीनों बदनाम कृषि क़ानून उनके हित में हैं. प्रधानमंत्री ने इस ऐतिहासिक संघर्ष के दौरान मारे गए 600 से ज़्यादा किसानों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा. उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी विफलता सिर्फ़ यह रही कि वह फुसलाने के अपने कौशल के दम पर 'किसानों के उस वर्ग' से अपनी बात नहीं मनवा सके. और उनकी हार का कारण क़ानूनों से जुड़ा नहीं है या इससे तय नहीं होता कि उनकी सरकार ने कैसे महामारी के बीच में किसानों का उत्पीड़न किया.

ख़ैर, 'किसानों के एक वर्ग' को खालिस्तानी, देशद्रोही, किसानों के रूप में फ़र्ज़ी कार्यकर्ता की पहचान दे दी गई, जिन्होंने श्री मोदीजी के आकर्षण से आकर्षित होने से इंकार कर दिया. राज़ी नहीं हुए? किसानों को मनाने का सरकार का तरीक़ा कैसा था? अपनी समस्याएं बताने आए किसानों को राजधानी में प्रवेश करने से रोककर? उनके रास्ते में बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर और कंटीले तारों से घेरकर? वाटर कैनन से उन पर प्रहार करके? उनके शिविरों को छोटी काल-कोठरियों में बदलकर? अपनी यारबाज़ मीडिया द्वारा हर दिन किसानों को बदनाम करके? उन्हें गाड़ियों से कुचलकर, कथित तौर पर जिसका मालिक एक केंद्रीय मंत्री या उसका बेटा था? क्या यही है इस सरकार का मनाने का तरीक़ा? अगर सरकार इसे अपनी ‘सर्वोत्तम कोशिश’ कहती है, तो उसकी ख़राब कोशिशों से फिर भगवान बचाए.

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किसानों को मनाने का सरकार का तरीक़ा कैसा था? उअपनी समस्याएं बताने आए किसानों को राजधानी में प्रवेश करने से रोककर? उनके रास्ते में बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर और कंटीले तारों से घेरकर? वाटर कैनन से उन पर प्रहार करके?

केवल इस साल ही गौर करें, तो प्रधानमंत्री ने कम से कम सात विदेश दौरे किए (जैसे अभी हाल ही में सीओपी26 के लिए). लेकिन दिल्ली के द्वार पर बैठे हज़ारों अन्नदाताओं से मिलने के लिए, वह अपने आवास से मात्र कुछ किलोमीटर की दूरी भी तय नहीं कर पाए, जिनकी पीड़ा ने देश के न जाने कितनों लोगों को आहत किया. क्या यह किसानों को मनाने की सबसे अच्छी कोशिश नहीं हो सकती थी?

विरोध-प्रदर्शन के पहले महीने से ही मुझे मीडिया सहित तमाम लोगों ने बहुत सारे सवाल पूछे कि किसान आख़िर कब तक विरोध-स्थलों पर टिके रह सकते हैं? इस सवाल का जवाब किसानों ने दे दिया है. लेकिन वे यह भी जानते हैं कि यह शानदार जीत तो अभी पहला क़दम है. कृषि क़ानूनों को फ़िलहाल निरस्त करने का अर्थ है कि अभी के लिए, किसान के गले से कॉर्पोरेट की फांस हट गई है, लेकिन एमएसपी और सरकारी ख़रीद से लेकर आर्थिक नीतियों तक, बहुत सारी ऐसी समस्याएं हैं जिनका समाधान निकलना बाक़ी है.

टीवी के न्यूज़ एंकर हमें बता रहे हैं कि सरकार द्वारा इन क़ानूनों को वापस लेने का संबंध, आगामी फरवरी माह में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से जुड़ा हो सकता है. वे इसे ऐसे बता रहे हैं जैसे किसी राज़ से पर्दाफ़ाश कर रहे हों.

यही मीडिया, आपको 3 नवंबर को घोषित हुए 29 विधानसभाओं और 3 संसदीय क्षेत्रों के उपचुनावों के परिणामों की प्रासंगिकता के बारे में कुछ बता नहीं सकी. 3 नवंबर के आसपास के सभी संपादकीय पढ़ें और देखें कि उस दौरान टेलीविजन पर किन मुद्दों का विश्लेषण किया गया था. न्यूज़ में आम तौर पर, उपचुनाव जीतने वाली सत्तारूढ़ पार्टियों की बात की गई, और स्थानीय स्तर पर थोड़ी नाराज़गी की बात की गई; न केवल भाजपा के बारे में, बल्कि और भी दूसरी पार्टियों के बारे में बात की गई. कुछ संपादकीय में, उन चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाले दो कारक, किसान के विद्रोह और कोविड-19 के कुप्रबंधन के बारे में भी थोड़ी-थोड़ी बातें कही गई थीं.

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विरोध-प्रदर्शनों की पीड़ा ने देश के हर कोने में लोगों को आहत किया. यह विरोध सिर्फ़ दिल्ली की सीमाओं पर नहीं हुआ, बल्कि कर्नाटक (बाएं), पश्चिम बंगाल (मध्य), महाराष्ट्र (दाएं), और अन्य राज्यों में भी किया गया था

श्री मोदीजी की आज की घोषणा से पता चलता है कि उन्हें देर से ही सही, लेकिन अंत में इन दो कारकों का महत्व तो समझ आया. वह जानते हैं कि जिन राज्यों में किसानों का आंदोलन तेज़ हुआ है, वहां उनकी कुछ बड़ी हार हुई है. उन राज्यों में राजस्थान और हिमाचल भी शामिल हैं, जिनके बारे में विश्लेषण में कुछ भी नहीं कहा गया; लेकिन मीडिया तोते की तरह अपने दर्शकों को यही बताती रही कि आंदोलन वाले राज्य सिर्फ़ पंजाब और हरियाणा थे.

पिछली बार ऐसा कब हुआ था, जब राजस्थान के दो निर्वाचन क्षेत्रों में, भाजपा या संघ परिवार का बनाया कोई संगठन तीसरे और चौथे स्थान पर रहा हो? या हिमाचल में एक के बाद एक मिली हार को ही लें, जहां भाजपा को तीनों विधानसभा सीटों और एक संसदीय सीट से हाथ धोना पड़ा?

हरियाणा की बात करें, तो जैसा कि प्रदर्शनकारियों ने कहा, "सीएम से लेकर डीएम तक की पूरी सरकार" भाजपा के लिए प्रचार कर रही थी; जहां कांग्रेस ने किसानों के मुद्दे पर इस्तीफ़ा देने वाले अभय चौटाला के ख़िलाफ़ बिना सोच-समझे अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया; और केंद्रीय मंत्रियों ने बड़ी ताक़त के साथ मोर्चा संभाला, लेकिन इसके बावजूद भी भाजपा हार गई. कांग्रेस उम्मीदवार की ज़मानत ज़ब्त कर ली गई, लेकिन वे चौटाला से एक बड़े अंतर की हार से बच गए; फिर भी वह 6,000 से अधिक मतों से जीते.

किसान आंदोलन का असर तीनों राज्यों में देखने को मिला और कॉर्पोरेट का तरफ़दार होने के बावजूद भी, प्रधानमंत्री को यह बात समझ में आ गई. अब जब उत्तर प्रदेश में शायद अगले 90 दिनों बाद चुनाव होने हैं, तो आंदोलन से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले असर, जिसमें लखीमपुर खीरी में किसानों के कुचले जाने से सरकार की ख़ुद के द्वारा करवाई गई अपनी किरकिरी भी शामिल थी, के कारण आंखें खुल रही हैं.

अगर विपक्ष ठीक से इस सवाल को उठा सका, तो अगले तीन महीनों में भाजपा सरकार को जवाब देना होगा कि साल 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के वादे का क्या हुआ? एनएसएस (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 2018-19) का 77वां दौर, किसानों की खेती और फ़सलों से होने वाली आय में गिरावट को दर्शाता है. कुल मिलाकर, किसान अपनी दोगुनी आय के बारे में तो भूल ही जाएं. रपट में खेती से हो रही वास्तविक आय में गिरावट भी साफ़ दिखाई देती है.

वीडियो देखें: कारवां ए मोहब्बत/पूजन साहिल की आवाज़ में 'बेला सियाओ' का पंजाबी वर्शन - वापस जाओ

यह कृषि संकट का अंत नहीं है. यह उस संकट से जुड़े बड़े मुद्दों पर संघर्ष की एक नई शुरुआत है

किसानों का संघर्ष कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की मांग से कहीं ज़्यादा था. उनके संघर्ष का इस देश की राजनीति पर गहरा असर रहा है. जैसा कि 2004 के आम चुनावों में हुआ था.

यह कृषि संकट का अंत नहीं है. यह उस संकट से जुड़े बड़े मुद्दों पर संघर्ष की एक नई शुरुआत है. पिछले काफ़ी समय से किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. और ख़ासकर 2018 के बाद से, जब महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों ने नासिक से मुंबई तक, 182 किलोमीटर लंबा अभूतपूर्व पैदल मार्च निकाला था, जिसने देश को अंदर से झकझोर कर रख दिया था. उस समय भी उन्हें 'अर्बन नक्सल' कहकर ख़ारिज़ करने की कोशिश हुई, उनके लिए बहुत सी बकवास बातें की गईं, और उन्हें नकली किसान बोला गया. उनके इस पैदल मार्च ने सबकी बोलती बंद कर दी थी.

यह सिर्फ़ एक छोटी जीत भर नहीं है. इसमें किसानों द्वारा कॉर्पोरेट मीडिया पर जीत भी शामिल है. यह किसी से छिपा नहीं है कि कृषि से मुद्दों पर (और कई अन्य समस्याओं पर भी) कॉर्पोरेट मीडिया, त्रिकोणीय एएए+ बैटरी (एम्प्लीफ़ाइंग अंबानी अडानी+) की शक्ति का इस्तेमाल करने लगता है.

दिसंबर और अगले साल अप्रैल के बीच, राजा राममोहन राय द्वारा प्रारंभ की गई दो महान पत्रिकाओं के 200 साल पूरे हो जाएंगे, जिन्हें असली मायने में (स्वामित्व के साथ-साथ पहुंच में) भारतीय प्रेस की शुरुआत कही जा सकती है. जिनमें से एक - मिरात-उल-अख़बार - ने कोमिला (अब चटगांव, बांग्लादेश में) में एक न्यायाधीश के आदेशानुसार कोड़े लगाने की सज़ा के कारण हुई प्रताप नारायण दास की हत्या में, अंग्रेज़ी प्रशासन की भूमिका को शानदार ढंग से उजागर किया था. राय के प्रभावशाली संपादकीय की बदौलत, उस समय के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायाधीश पर क़ानूनी कार्रवाई की गई और उस पर मुक़दमा चलाया गया.

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महिला, पुरुष, आदिवासी और दलित समुदायों सहित, देश के सभी किसानों ने इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. और संघर्ष की ठीक उसी भावना को हमारे किसानों ने आज़ादी के 75वें वर्ष में, दिल्ली की सीमाओं पर एक बार फिर से दिखाया है

गवर्नर जनरल ने इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए प्रेस को डराने की कोशिश की. गवर्नर जनरल ने एक नए कड़े प्रेस अध्यादेश की घोषणा करते हुए उन्हें झुकाने की कोशिश की. मोहन राय ने इस अध्यादेश को मानने से इंकार कर दिया और घोषणा कर दी कि वह मिरात-उल-अख़बार को बंद कर रहे हैं. उन्होंने उपेक्षा से भरे और अपमानजनक क़ानूनों व परिस्थितियों के सामने घुटने टेकने से इंकार कर दिया. (और उन्होंने अन्य पत्रिकाओं के ज़रिए अपने संघर्ष को आगे बढ़ाया!)

वह साहसिक पत्रकारिता थी. कृषि के मुद्दे पर हमने समर्पण की जो पत्रकारिता देखी है वह साहसिक पत्रकारिता नहीं है. बगैर नामों वाले संपादकीय में किसानों के लिए 'चिंता' के नाम पर बस एक दिखावा होता था, जबकि ऑप-एड पेजों पर उनकी आलोचना भरी होती थी कि अमीर किसान 'अमीरों के लिए समाजवाद की तलाश' कर रहे हैं.

द इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ़ इंडिया के साथ-साथ लगभग सभी अख़बारों ने यही कहा कि ये गांवों के देहाती लोग हैं, जिनसे सिर्फ़ प्यार से बात करने की ज़रूरत थी. और फिर संपादकीय हमेशा इन अपीलों पर बात करते हुए ख़त्म होता था: लेकिन इन क़ानूनों को वापस न लें, ये वास्तव में अच्छे हैं. बाक़ी मीडिया भी ऐसा ही कुछ छापती रही.

क्या इनमें से किसी प्रकाशन ने एक बार भी अपने पाठकों को किसानों और कॉर्पोरेट के बीच जारी इस संघर्ष के बीच यह बताया कि मुकेश अंबानी की 84.5 बिलियन डॉलर (फ़ोर्ब्स 2021) की व्यक्तिगत संपत्ति, पंजाब राज्य के जीएसडीपी (लगभग 85.5 बिलियन) के लगभग बराबर पहुंच चुकी है? क्या उन्होंने एक बार भी आपको बताया था कि अंबानी और अडानी (जिसने 50.5 बिलियन डॉलर की कमाई की) की कुल संपत्ति पंजाब या हरियाणा के जीएसडीपी से अधिक थी?

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किसानों का संघर्ष, कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की मांग से कहीं बढ़कर है. उनके संघर्ष का इस देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा है

ख़ैर, विकट परिस्थितियां अभी बनी हुई हैं. भारतीय मीडिया में अंबानी का सबसे ज़्यादा मालिकाना हक़ है. और जिन मीडिया हाउस का वह मालिक नहीं है, शायद उनके लिए वह सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है. कॉर्पोरेट के इन दो नवाबों के पास इतनी विशाल संपत्ति है, इस बारे में अक्सर बड़े जोश-ओ-ख़रोश और उत्सवी स्वर के साथ लिखा जाता है. यह कॉर्पोरेट की ग़ुलामी वाली पत्रकारिता है.

कृषि क़ानूनों को निरस्त करने से, पंजाब विधानसभा चुनाव पर इस धूर्त रणनीति के पड़ने वाले ज़ोरदार प्रभावों के बारे में पहले से ही कहा जा रहा है. कहा जा रहा है कि अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर और मोदी के साथ समझौता करके, इसे पंजाब में अपनी आगामी जीत के रूप में पेश किया है. उनका मानना है कि इससे वहां की चुनावी तस्वीर बदल जाएगी.

लेकिन कृषि क़ानूनों के विरुद्ध संघर्ष करने वाली, राज्य की हज़ारों-लाखों जनता को मालूम है कि यह किसकी जीत है. पंजाब की जनता का दिल प्रदर्शन-स्थलों पर टिके उन किसानों के साथ है जिन्होंने दिल्ली की हालिया दशकों में पड़ी सबसे ज़्यादा ठंड, भीषण गर्मी, उसके बाद बारिश, और श्री मोदीजी व उनकी ग़ुलाम मीडिया के ख़राब व्यवहार को झेला है.

और प्रदर्शनकारियों ने इस जीत से शायद जो सबसे बड़ी सफलता हासिल की है वह यह है: दूसरी जगहों और अन्य मुद्दों पर भी लोगों को एक ऐसी सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना जो अपने विरोधियों को जेल में डाल देती है या उनका उत्पीड़न करती है और शिकार बनाती है. जो यूएपीए के तहत, पत्रकारों सहित आम नागरिकों को कभी भी गिरफ़्तार कर लेती है, और 'आर्थिक अपराधों' का दोष लगाकर स्वतंत्र मीडिया पर शिकंजा कसती है. आज की दिन सिर्फ़ किसानों की जीत का नहीं है. यह नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की लड़ाई की जीत है. यह जीत है भारतीय लोकतंत्र की.

अनुवाद: अमित कुमार झा

P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought'.

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Illustration : Antara Raman

Antara Raman is an illustrator and website designer with an interest in social processes and mythological imagery. A graduate of the Srishti Institute of Art, Design and Technology, Bengaluru, she believes that the world of storytelling and illustration are symbiotic.

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Translator : Amit Kumar Jha

Amit Kumar Jha is a professional translator. He has done his graduation from Delhi University and is now learning German.

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