तालिबान ने 20 साल बाद काबुल में फिर से अपनी हुकूमत कायम कर ली है। तालिबान का प्रमुख उद्देश्य अफगानिस्तान में इस्लामिक अमीरात की स्थापना करना है।
सोवियत सेना की वापसी के बाद अलग-अलग जातीय समूह में बंटे ये संगठन आपस में ही लड़ाई करने लगे। इस दौरान 1994 में इन्हीं के बीच से एक हथियारबंद गुट उठा और उसने 1996 तक अफगानिस्तान के अधिकांश भूभाग पर कब्जा जमा लिया।
1996 से लेकर 2001 तक तालिबान ने अफगानिस्तान में शरिया के तहत शासन भी चलाया। जिसमें महिलाओं के स्कूली शिक्षा पर पाबंदी, हिजाब पहनने, पुरुषों को दाढ़ी रखने, नमाज पढ़ने जैसे अनिवार्य कानून भी लागू किए गए थे।
इसके बाद से उसने पूरे देश में शरिया या इस्लामी कानून को लागू कर दिया। इसे ही तालिबान के नाम से जाना जाता है। इसमें अलग-अलग जातीय समूह के लड़ाके शामिल हैं, जिनमें सबसे ज्यादा संख्या पश्तूनों की है।
2001 में अमेरिकी हमले के कारण तालिबान को काबुल छोड़कर भागना पड़ा था। लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि अमेरिका के नेतृत्व में कई देशों की सेना के उतरने के बाद भी इसका खात्मा नहीं किया जा सका।
तालिबान की स्थापना मुल्ला उमर ने की थी। मुस्लिम धार्मिक नेता मुल्ला उमर 1979 में सोवियत संघ के हमले के बाद जिहादी बना था। तालिबान की स्थापना के बाद से मुल्ला उमर इस आतंकी संगठन का सरगना बन गया था। ये इतना बड़ा वांडेट आतंकी था कि अमेरिका ने इस एक आंख वाले व्यक्ति के सिर पर एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा था।
मुल्ला उमर का ठिकाना इतना गोपनीय था कि अफगानिस्तान का चप्पा-चप्पा छानने के बाद भी अमेरिका को इसका कोई सुराग नहीं मिला था। साल 2015 में मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला मोहम्मद याकूब ने अपने पिता की दो साल पहले मौत की पुष्टि की थी। मुल्ला उमर अल कायदा चीफ ओसामा बिन लादेन का भी काफी करीबी था।
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