वह मंच पर पुरस्कार लेने के लिए खड़े थे, पुरस्कार में एक पैसे का चमचमाता हुए सिक्का मिलना था, पुरस्कार देने वाले थे मुंशी, जिनके नियंत्रण के दायरे में अन्य बहुत से स्कूल भी थे. यह किस्सा सन् 1939 के पंजाब का है, वह 11 बरस के थे और तीसरी कक्षा में पढ़ते थे जिसे उन्होंने टॉप किया था. मुंशी ने उनका सिर थपथपाया और उनसे ‘ब्रिटानिया ज़िंदाबाद, हिटलर मुर्दाबाद’ का नारा लगाने को कहा. इस युवा भगत सिंह ने जिन्हें उनके ही हमनाम और बेहद मशहूर क्रांतिकारी भगत सिंह समझना एक भूल से कम नहीं होगा, आयोजन में आए दर्शकों से मुख़ातिब होते हुए ज़ोरदार तरीक़े से नारा लगाया, “ब्रिटानिया मुर्दाबाद, हिंदुस्तान ज़िंदाबाद”.

उनकी इस धृष्टता का खामियाज़ा उन्हें तत्काल ही भुगतना पड़ा. वह पलक झपकने जितनी भी देर किए बगैर ख़ुद मुंशी बाबू द्वारा बुरी तरह पीटे गए और उन्हें तत्काल प्रभाव से गवर्नमेंट एलीमेंट्री स्कूल, समुंद्र से निकाल बाहर किया गया. वहां उपस्थित अन्य छात्र लगभग भौचक्के होकर इस घटना के गवाह बने और फिर स्कूल से बिना किसी देरी के चले गए. स्थानीय स्कूल अथॉरिटी, जिसे आज के दिनों में ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर कह सकते हैं, ने बिना किसी देरी के एक आधिकारिक पत्र जारी किया जिसे उस इलाक़े के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर का भी अनुमोदन प्राप्त था जो इलाक़ा अभी पंजाब के होशियारपुर ज़िले के नाम से जाना जाता है. आधिकारिक पत्र उनके स्कूल से निकाले जाने को सुनिश्चित करता था और उसमें 11 बरस के भगत सिंह को ‘ख़तरनाक’ और ‘क्रांतिकारी विचारों का वाहक’ क़रार दिया था.

इसका सीधा सा मतलब था कि ब्लैकलिस्टेड भगत सिंह झुग्गियां के लिए सारे स्कूलों के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हो गए थे. और उस वक़्त ज़्यादा स्कूल थे भी नहीं. उनके मां-बाप के अलावा भी बहुतों ने अथॉरिटी से फ़ैसला वापस लेने की गुहार लगाई. एक रसूखदार ज़मींदार, ग़ुलाम मुस्तफ़ा ने भी अपनी तरफ़ से एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया. लेकिन ब्रिटिश राज के नुमाइंदों को बात नागवार गुज़र चुकी थी. एक छोटे-से बच्चे ने उनकी मान-मर्यादा भंग कर दी थी. भगत सिंह झुग्गियां उसके बाद अनोखे रंगों से सराबोर अपनी ज़िंदगी में ताउम्र कभी भी औपचारिक शिक्षा ग्रहण न कर सके.

लेकिन वह जीवन की पाठशाला के पुरोधा छात्र पहले भी थे और 93 वर्ष की अवस्था में अब भी हैं.

होशियारपुर ज़िले के रामगढ़ गांव स्थित अपने घर पर हमसे बातचीत के दौरान वह उस नाटकीय घटनाक्रम को याद करते हुए मुस्कुराने लगते हैं. क्या उन्हें यह सब भयावह नहीं लगा? इस बाबत वह ख़ुद ही कहते हैं, “मेरी प्रतिक्रिया कुछ इस तरह थी- अब मुझे ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने से कोई नहीं रोक सकता.”

PHOTO • Courtesy: Bhagat Singh Jhuggian Family

भगत सिंह झुग्गियां और उनके दोस्त, उसी स्कूल के सामने खड़े हैं जो अब पुनर्निर्मित किया जा चुका है और जहां से उन्हें 1939 में बाहर कर दिया गया था

वह ऐसा करने को आज़ाद थे इसलिए उनपर बराबर निग़ाह रखी जा रही थी. यद्यपि की पहले-पहल वह अपने खेतों में काम करने लग गए थे लेकिन उनका नाम जगज़ाहिर हो चुका था. पंजाब के भूमिगत क्रांतिकारी धड़े उनसे संपर्क साधना शुरू कर चुके थे. वह ‘कीर्ति पार्टी’ नाम के एक दल से जुड़े भी, जोकि 1914-15 में ग़दर विद्रोह कर चुकी ग़दर पार्टी की ही एक शाखा थी.

इस दस्ते में बहुत से ऐसे लोग जुड़े हुए थे जोकि क्रांतिकारी विचारधारा के रूस से मिलिट्री और वैचारिकी की ट्रेनिंग लेकर आए थे. ग़दर विद्रोह के दमन के बाद पंजाब लौटने पर उन्होंने ‘कीर्ति’ नाम से एक प्रकाशन खोला. इसके बहुत से प्रख्यात पत्रकार सहयोगियों में लीजेंडरी भगत सिंह भी थे, असल में जिन्होंने तब 27 मई, 1927 को हुई गिरफ़्तारी से पहले तीन महीने तक प्रकाशन का जिम्मा देखा था, जब ‘कीर्ति’ में कोई संपादक नहीं बचा था. मई, 1942 में कीर्ति पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया में शामिल हो गई थी.

और गौरतलब यह भी है कि झुग्गियां का नाम महान भगत सिंह के नाम पर नहीं पड़ा था. वह कहते हैं, “हालांकि, मैंने बड़े होते हुए लोगों को उनके बारे में गाते हुए सुना था, ऐसे बहुत से गाने थे.” वह उस दौर के महान क्रांतिकारी पर बनाए गए गीतों में से एक को तनिक गुनगुनाकर सुनाते भी हैं. भगत सिंह को ब्रिटिश शासन ने 1931 में जब फांसी के तख्ते पर चढ़ाया, तब उनके छोटे हमनवा महज़ 3 साल के थे.

स्कूल से बेदख़ल किए जाने के बाद के सालों में युवा भगत सिंह झुग्गियां ने अंडरग्राउंड क्रांतिकारियों के लिए संदेशवाहक का काम किया. वह बताते हैं, “परिवार की पांच एकड़ की ज़मीन पर काम करने के साथ-साथ, वे मुझे जो भी करने को कहते थे, मैं वह करता था." उनमें से एक काम, युवावस्था में अंधेरे में 20 किलोमीटर से भी ज़्यादा दूरी तक पैदल चलकर प्रिटिंग प्रेस की मशीन के अलग किए गए छोटे और "बेहद भारी" कलपुर्जे दो बोरियों में भरकर, क्रांतिकारियों के गुप्त कैंप तक पहुंचाना होता था. कहना होगा कि निःसंदेह वह आज़ादी की लड़ाई के पैदल सिपहसालार थे.

वह आगे बताते हैं, “लौटते वक़्त वे खाद्य व अन्य रसद से भरा हुआ वज़नदार बैग देते थे, जिसे उतनी ही दूरी तक वापस चलते हुए लाना और अपने नेटवर्क के कॉमरेडों तक पहुंचाना होता था.” उनके परिवार ने भी अंडरग्राउंड लड़ाकों को भोजन उपलब्ध कराया और शरण दी.

PHOTO • P. Sainath

महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के भतीजे प्रो. जगमोहन सिंह (बाएं) और भगत सिंह झुग्गियां रामगढ़ स्थित उनके घर में

जो मशीन वह ढोकर ले गये थे उसे ‘उदारा प्रेस’ कहा जाता था (जिसका शाब्दिक अर्थ फ्लाइंग प्रेस होता है, लेकिन उसका आशय पोर्टेबल होने से है). यह स्पष्ट नहीं है कि वह छोटे प्रेस के अलग किए हुए पुर्ज़े थे या किसी एक मशीन के बड़े ज़रूरी भाग थे या हाथ के लिखे को छापने वाली मशीन थी. उन्हें बस इतना याद आता है कि “उसमें कच्चे लोहे के बड़े और वज़नदार हिस्से होते थे.” उन्होंने कूरियर पहुंचाने के काम को जोख़िम उठाते हुए, लेकिन लगभग सही सलामत रहते हुए अंजाम तक पहुंचाया. उन्हें इस बात पर गर्व भी है कि वक़्त बीतने के साथ-साथ “पुलिस को लेकर मेरे अंदर व्याप्त डर की तुलना में पुलिस को मुझसे कहीं अधिक खौफ़ था.”

*****

और फिर विभाजन हो गया.

उस दौर के बारे में बात करते हुए भगत सिंह झुग्गियां सबसे ज़्यादा भावुक होते हैं. यह बुज़ुर्ग व्यक्ति विभाजन के परिणामस्वरूप हुए भयानक क़त्लेआम और जनसंहार के बारे में बात करते हुए बमुश्किल अपने आंसू रोक पाते हैं. वह बताते हैं, “सरहद पार जाने की कोशिश में लगे सैकड़ों-हज़ारों लोगों के कारवां पर लगातार हमले किए गए, लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया. यहां हर तरफ़ जैसे क़त्लेआम मच गया था.”

स्कूल में अध्यापक, लेखक और स्थानीय इतिहासकार अजमेर सिद्धू कहते हैं, “लगभग चार किलोमीटर दूर स्थित सिंबली गांव में लगभग 250 लोग थे, सब के सब मुसलमान थे, दो रातों और एक दिन के समयांतराल में उन सबकी निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई थी. लेकिन गढ़शंकर पुलिस स्टेशन के थानेदार ने हत्या से हुई मौतों की सूची में सिर्फ़ 101 मौतें दर्ज़ की.” अजमेर सिद्धू भी तब हमारे साथ ही थे, जब हम भगत सिंह झुग्गियां का इंटरव्यू ले रहे थे.

भगत सिंह कहते हैं, “अगस्त 1947 में यहां लोगों के दो तरह के गुट थे, पहला जो मुसलमानों का क़त्लेआम करता था, दूसरा जो उन्हें किसी भी तरह के हमले से बचाने की कोशिश करता था.”

वह बताते हैं, “मेरे खेत के पास किसी जवान लड़के की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. हमने उसके भाई को अंतिम संस्कार में मदद की पेशकश की, लेकिन वह बेहद डरा हुआ था और कारवां के साथ आगे बढ़ गया. फिर हमने ही लाश को अपनी ज़मीन में दफ़नाया. वह अगस्त महीने की भयावह 15वीं तारीख थी.”

PHOTO • Courtesy: Bhagat Singh Jhuggian Family
PHOTO • Courtesy: Bhagat Singh Jhuggian Family

साल 1965 में भगत सिंह अपनी पत्नी गुरदेव कौर और सबसे बड़े बेटे जसवीर सिंह के साथ. दाएं: साल 1970 के दशक के आख़िर का उनका पोर्ट्रेट

जो लोग जान बचाकर सरहद पार जा पाए उनमें ग़ुलाम मुस्तफ़ा भी एक थे, ग़ुलाम मुस्तफ़ा यानी वह ज़मींदार जिसने अतीत में एक बार यह कोशिश की थी कि भगत सिंह का स्कूल जाना बंद न होने पाए.

भगत सिंह कहते हैं, “हालांकि मुस्तफ़ा का बेटा, अब्दुल रहमान, कुछ वक़्त तक रुका रहा और उस पर मौत का साया लगातार मंडराता रहा. मेरे परिवार वाले एक रात चोरी-छिपे रहमान को हमारे घर ले आए. उसके साथ एक घोड़ा भी था.”

लेकिन मुसलमानों की तलाश कर रही हत्यारी भीड़ को इस बात की भनक लग गई. “इसलिए एक रात लोगों की नज़र बचाते हुए हम उसे बाहर ले गए और दोस्तों व कॉमरेडों के नेटवर्क के सहारे वह जान बचाते हुए सरहद पार करने में सफ़ल रहा.” बाद में उन लोगों ने कोशिशों के बाद घोड़े को भी सरहद पार भेज दिया. मुस्तफ़ा ने गांव के अपने दोस्तों को लिखे गए ख़त में भगत सिंह का शुक्रिया अदा करते हैं और उनसे कभी मिलने आने का वादा करते हैं. “लेकिन वह कभी वापस नहीं आ सके.”

विभाजन के बारे में बात करते हुए भगत सिंह तनिक असहज और भावुक हो जाते हैं. वह फिर कुछ भी कहने के पहले कुछ पल को चुप्पी साध लेते हैं. उन्हें एक बार 17 दिनों की जेल हुई थी, वह भी तब, जब पुलिस ने होशियारपुर ज़िले में ही स्थित बीरमपुर गांव में आज़ादी की लड़ाई पर आयोजित एक सभा को बर्ख़ास्त करने की कोशिश की थी.

1948 में उन्होंने ‘लाल कम्युनिस्ट पार्टी हिंद यूनियन’ की सदस्यता ली, जोकि सीपीआई से अलग हुए और पूर्व में ‘कीर्ति पार्टी’ से जुड़े लोगों के एक गुट ने बनाई थी.

लेकिन यह तब का वक़्त था, जब सभी कम्युनिस्ट संगठनों पर प्रतिबंध लगा हुआ था, 1948 और 1951 के बीच और बाद में तेलंगाना और अन्य जगहों पर इन संगठनों का उभार देखा गया. भगत सिंह झुग्गियां फिर से दिन में खेती-किसानी और रात में गुप्त संदेशवाहक का काम करने लगे और गुप्त रूप से अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे अंडरग्राउंड कार्यकर्ताओं की मेज़बानी करने लगे. ज़िंदगी के उस दौर में वह ख़ुद भी तक़रीबन साल भर के वक़्त के लिए अंडरग्राउंड रहे.

बाद में, साल 1952 में लाल पार्टी का कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया में विलय हो गया. वह बाद में फिर 1964 में पार्टी के विखंडन के बाद बनी नई पार्टी सीपीआई-एम से जुड़े, जिसके साथ वह हमेशा रहे.

PHOTO • Courtesy: Bhagat Singh Jhuggian Family

इस तस्वीर में झुग्गियां (बीच में बैठे हुए), पंजाब में मिलिटेंसी के उभार के दौर में साल 1992 में सीपीएम लीडर (लेट) हरकिशन सिंह सुरजीत (दाएं बैठे हुए) के साथ

उस दौरान वह किसानों के हक़ में ज़मीन और अन्य चीज़ों से जुड़े आंदोलनों में भी शामिल होते रहे. भगत सिंह साल 1959 में ख़ुश हसियती टैक्स मार्च (एंटी-बेटरमेंट टैक्स स्ट्रगल) के दौरान गिरफ़्तार किए गए. उनका अपराध था: कांदी इलाक़े के किसानों को संगठित करना. आग बबूला हुई प्रताप सिंह कैरो सरकार ने उन्हें दंडित करते हुए उनकी भैंस और चारा काटने वाली मशीन को कब्ज़े में लिया और उसे नीलाम कर दिया. लेकिन दोनों ही चीज़ें 11 रुपए में गांव के ही किसी साथी ने ख़रीदी दी, जिसने बाद में वह सब परिवार को लौटा दिया.

इस आंदोलन के दौरान भगत सिंह तीन महीने लुधियाना की जेल में भी रहे. और बाद में उसी साल एक और बार तीन महीने के लिए पटियाला जेल में रहे.

जिस गांव में वह ताउम्र रहे वहां पहले सिर्फ़ कुछ झुग्गियां ही थीं और इसलिए ही उसका नाम झुग्गियां पड़ा. इस तरह उनका नाम भगत सिंह झुग्गियां पड़ा. अब यह गढ़शंकर तहसील के रामगढ़ गांव में आता है.

1975 में आपातकाल के ख़िलाफ़ प्रदर्शन में शामिल होने के बाद वह फिर से साल भर के लिए अंडरग्राउंड रहे. इस दौरान भी वह लोगों को संगठित करते रहे, जब-तब कूरियर भी पहुंचाते रहे, और आपातकाल विरोधी साहित्य का वितरण करते रहे.

इन तमाम सालों में वह अपने गांव और इलाक़े में ज़मीन से जुड़े रहे. जिस आदमी के नसीब में तीसरी कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं रही, उसने अपने आस-पास शिक्षा और रोज़गार के सवालों से जूझ रहे युवाओं की समस्या की गंभीरता समझी. उन्होंने जितनों की मदद की, उनमें से बहुत आगे बढ़े, कुछ लोगों को तो सरकारी नौकरी भी मिली.

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1990: भगत सिंह का परिवार सतर्क था और उनकी बातचीत चिट्ठी-पत्री के माध्यम से होती थी. हथियारों से लैश खालिस्तानी गिरोह ने उनके घर से तक़रीबन 400 मीटर दूर ट्यूबवेल पर उनका नाम खुदा हुआ देखकर उनके खेत में ही पड़ाव डाला हुआ था. वे वहां झाड़ियों में लेटे हुए थे लेकिन उनपर लोगों की नज़र पड़ गई थी.

1984 से 1993 के बीच पंजाब में दहशत का बोलबाला था. सैकड़ों लोगों की गोली मारकर या किसी दूसरे तरीक़े से हत्या की गई थी. उनमें भारी तादाद में सीपीआई, सीपीआई-एम, और सीपीआई-एमएल के कार्यकर्त्ता निशाने पर रहे, क्योंकि इन पार्टियों ने खालिस्तानियों के ख़िलाफ़ सशक्त विद्रोह किया था. उस दौरान भगत सिंह हमेशा हिट लिस्ट में बने रहे.

PHOTO • Vishav Bharti

भगत सिंह झुग्गियां उसी ट्यूबवेल के पास खड़े हैं जहां पर खालिस्तानियों ने 31 साल पहले उनके लिए घात लगाया था

हालांकि, उन्हें 1990 में इस बात का अहसास हुआ कि हिट लिस्ट में होने का क्या मतलब होता है. उनके तीनों जवान बेटे पुलिस द्वारा दी गई बंदूक लेकर घर की छत पर थे. उस वक़्त सरकार ने ख़ुद न केवल अनुमति दी, बल्कि इस बात पर ज़ोर भी दिया कि जिन लोगों की जान को ख़तरा है वे अपनी सुरक्षा के लिए हथियार पास में रखें.

उस दौर को याद करते हुए भगत सिंह बताते हैं, “उन्होंने जो बंदूकें हमें मुहैया करवाई थीं, वे ख़राब क्वालिटी की थीं. इसलिए मैंने कहीं से 12-बोर की एक शॉटगन का इंतज़ाम किया और बाद में एक सेकेंड हैंड बंदूक ख़ुद भी ख़रीदी.”

उनके 50 वर्षीय बेटे परमजीत बताते हैं, “एक बार मुझे आतंकियों द्वारा मेरे पिता को जान से मारने की धमकी भरी चिट्ठी मिली: ‘अपनी गतिविधियों पर लगाम लगा लो, वरना तुम्हारे पूरे परिवार का नामोनिशान मिटा देंगे.’ मैंने उसे वापस लिफ़ाफ़े में रखा और ऐसे दिखावा किया जैसे किसी ने कुछ नहीं देखा. मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर पा रहा था कि मेरे पिता इस पर क्या प्रतिक्रिया देंगे. उन्होंने शांतिपूर्वक चिट्ठी पढ़ी, उसे मोड़ा और अपनी जेब में रख लिया. कुछ लम्हों के बाद वह हम तीनों को छत पर ले गए और सतर्क रहने की हिदायत दी. लेकिन चिट्ठी के बारे में कुछ नहीं कहा."

1990 के उस गतिरोध के दौरान का डर, शरीर में सिहरन पैदा कर देने वाला था. इस बात में कोई शक नहीं कि इस हिम्मती परिवार के लोगों ने अंत तक अपने हिस्से की लड़ाई लड़ी होगी. लेकिन शक इस बात में भी है कि हाथ में एके-47 और अन्य ख़तरनाक हथियार लिए प्रशिक्षित स्क्वाड के दमखम की आंच इनके हौंसलों पर भी पड़ी होगी.

तब स्थिति कुछ ऐसी ही थी जब उन चरमपंथियों में से किसी ने ट्यूबवेल पर लिखा नाम पढ़कर उन्हें पहचान लिया था. बुज़ुर्ग स्वतंत्रता सेनानी बताते हैं, “वह दूसरों से मुख़ातिब होते हुए बोला, ‘अगर हमारा टारगेट भगत सिंह झुग्गियां हैं, तो इस मामले में अब मुझे कुछ नहीं करना है.’ हिट स्क्वाड ने जान से मारने की योजना को रद्द कर दिया और खेत से पीछे हटे और ग़ायब हो गए.

बाद में यह पता चला कि आतंकवादी का छोटा भाई उन लोगों में से एक था जिनकी भगत सिंह ने गांव में मदद की थी. उसकी पटवारी के तौर पर सरकारी नौकरी भी लग गई थी. भगत सिंह मुस्कुराते हुए कहते हैं, “जान से मारने की योजना से पीछे हटने के दो साल बाद बड़ा भाई मुझे चेतावनी दे दिया करता था कि कब और कहां नहीं जाना है.” इससे उन्हें आगे हमलों से बचने में मदद मिलती रही.

PHOTO • Vishav Bharti
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रामगढ़ स्थित अपने घर में पत्नी गुरदेव कौर के साथ भगत सिंह. दाएं: वह बताते हैं कि उन्होंने 12 बोर की अपनी बंदूक अब बेच दी है, क्योंकि अब कोई बच्चा भी उनके हाथ से बंदूक छीन सकता था

जिस तरीक़े से परिवार के लोग उन तमाम घटनाक्रमों की कहानी बयान करते हैं, वह भी अपने आप में दहला देने वाला है. इसमें भगत सिंह का विश्लेषण भावावेगों से भरा हुआ है. विभाजन के बारे में बात करते हुए वह औरों से कहीं ज़्यादा भावुक हो जाते हैं. और उनकी ज़िंदगी का क्या, क्या वह उस वक़्त उसमें भूचाल नहीं आया था? सबसे ज़्यादा शांत दिखाई पड़ती 78 वर्षीय गुरदेव कौर, जोकि पुराने दौर में आल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन की कार्यकर्त्ता थी, बताती हैं, “मुझे इस बात का भरोसा था कि हम हमले का जवाब दे सकते सकते हैं. मेरे बेटे अपनी देह और इरादे से मजबूत थे और गांव वालों ने हमारा सहयोग किया था.”

भगत सिंह के साथ गुरदेव कौर की शादी 1961 में हुई, जोकि उनकी दूसरी शादी थी. उनकी पहली पत्नी का देहांत शादी के कुछ साल बाद 1944 में ही हो गया था और उनकी दोनों बेटियां विदेश में बस चुकी हैं. गुरदेव कौर और भगत सिंह के तीन बेटे हैं. बड़े बेटे जसवीर की 47 साल की उम्र में 2011 में मृत्यु हो गई. दूसरे बेटे 55 वर्षीय कुलदीप सिंह यूनाइटेड किंगडम में बस गए हैं और परमजीत उनके साथ रहते हैं.

क्या उनके पास अभी भी वह 12-बोर की बंदूक राखी है? इसके जवाब में वह हंसते हुए कहते हैं, “नहीं, मैंने उससे छुटकारा पा लिया है. वह अब किस काम की होती. कोई बच्चा भी उसे मेरे हाथ से छीन लेगा.”

1992 के विधानसभा चुनावों में मुसीबत वापस फिर से उनके दरवाज़े पर खड़ी हो गई. केंद्र सरकार ने पंजाब में चुनाव करवाने का निश्चय कर लिया था. खालिस्तानी चुनाव ठप्प करवाने को तैयार खड़े थे, वे उम्मीदवारों की हत्या करने लगे. भारतीय चुनाव संहिता के तहत चुनाव प्रचार के दौरान किसी प्रतिष्ठित पार्टी के उम्मीदवार की मृत्यु के बाद, उस चुनाव क्षेत्र में चुनाव स्थगित या रद्द हो जाता है. अब हर उम्मीदवार के लिए जान का ख़तरा पैदा हो गया था.

अभूतपूर्व पैमाने पर हुई हिंसा की वजह से इन चुनावों की तारीख़ को जून 1991 में आगे बढ़ा दिया गया था. ‘एशियन सर्वे’ जर्नल में छपे गुरहरपाल सिंह के पेपर के अनुसार उस साल मार्च से जून के बीच में “24 प्रादेशिक और संसदीय उम्मीदवारों की हत्या हुई थी, दो ट्रेनों में सफ़र कर रहे 76 यात्रियों का क़त्लेआम हुआ था और चुनाव से महज़ हफ़्ते भर पहले पंजाब को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया था.”

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सुरक्षाकर्मियों के एक दल के साथ भगत सिंह, साल 1992 के पंजाब विधानसभा चुनाव अभियान में कैम्पेन कर रहे थे, जिसे उन्होंने 1992 में गढ़शंकर निर्वाचन क्षेत्र से लड़ा था

चरमपंथियों का लक्ष्य साफ़ था. चुनाव रद्द करवाने के लिए पर्याप्त उम्मीदवारों की हत्या. सरकार ने अभूतपूर्व रूप से पहल करते हुए उम्मीदवारों की सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद कर दी. उनमें भगत सिंह झुग्गियां भी थे जो गढ़शंकर विधानसभा से उम्मीदवारी पेश कर रहे थे. अकाली दल से जुड़े सभी गुटों ने चुनाव का बहिष्कार किया. “ हर उम्मीदवार को 32 सुरक्षाकर्मी उपलब्ध करवाए गए थे और ज़्यादा बड़ा नाम होने पर यह आंकड़ा 50 या उससे ज़्यादा हो जाता था.” निश्चित तौर पर यह सारा इंतज़ाम सिर्फ़ चुनाव की अवधि तक ही था.

अपने 32 सुरक्षाकर्मियों की टुकड़ी के बारे में पूछने पर भगत सिंह बताते हैं, “18 सुरक्षाकर्मी मेरे पार्टी दफ़्तर पर तैनात थे. 12 हमेशा मेरे साथ रहते थे और मैं जहां भी चुनाव प्रचार के लिए जाता था वे मेरे साथ जाते थे. बाक़ी 2 हमेशा मेरे घर, मेरे परिवार की सुरक्षा में रहते थे.” चुनाव के पहले सालों तक आतंकियों की हिट लिस्ट में रहने के बाद उनके लिए जान का जोख़िम कहीं अधिक था. लेकिन वे सही सलामत बचे रहे. सेना, पैरामिलिटरी, और पुलिस के जवानों ने आतंकियों से मुठभेड़ किया और फिर बिना ज़्यादा जान-माल के नुक़्सान के चुनाव हुए.

परमजीत कहते हैं, “वह 1992 का चुनाव यह मानकर लड़े थे कि ख़ुद को हाई प्रायोरिटी टारगेट बना देंगे, तो खालिस्तानियों का पूरा ध्यान अपनी तरफ़ मोड़ते हुए वह युवा कॉमरेडों की जान बचा सकेंगे.”

भगत सिंह कांग्रेस के उम्मीदवार से चुनाव हार गए. लेकिन उन्होंने कुछ चुनाव जीते भी थे. 1957 में वह रामगढ़ और चाक गुज्जरन, नाम के दो गांवों के सरपंच चुने गए थे. वह चार बार सरपंच चुने गए, उनका अंतिम कार्यकाल 1998 का था.

वह 1978 में नवांशहर (अब जिसका नाम शहीद भगत सिंह नगर है) स्थित सहकारी सुगर मिल के निदेशक चुने गए थे, वह भी अकाली दल का समर्थन प्राप्त किए हुए रसूखदार ज़मींदार संसार सिंह को हराकर. 1998 में वह एक और बार निर्विरोध रूप से इस पद के लिए चुने गए.

*****

कक्षा 3 में स्कूल से निकाले जाने के बाद कभी भगत सिंह झुग्गियां को औपचारिक शिक्षा नहीं मिला पाई, लेकिन वह आगे चलकर जीवन की पाठशाला के पुरोधा छात्र साबित हुए (चित्रण: अंतरा रमन)

उन आठ दशकों में जब से वह स्कूल से बाहर निकाल फेंके गए थे, भगत सिंह झुग्गियां हमेशा राजनैतिक रूप से जागरूक और सक्रिय रहे हैं. वह किसान आंदोलन से जुड़ी बारीक़ से बारीक़ बात भी जानने के लिए लालायित रहते हैं. वह अपनी पार्टी के स्टेट कंट्रोल कमीशन में रहते हैं. और उस निकाय के ट्रस्टी भी हैं जो जालंधर में 'देश भगत यादगार हॉल' चलाता है. डीबीवाईएच किसी भी और संस्थान से कहीं ज़्यादा मुस्तैदी से पंजाब में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलनों को न केवल रिकॉर्ड करता है, बल्कि उसे दर्ज़ करते हुए उसका दस्तावेज़ संजोने का काम भी करता है. ट्रस्ट की स्थापना ख़ुद ग़दर मूवमेंट के क्रांतिकारियों ने की थी.

उनके दोस्त दर्शन सिंह मट्टू बताते हैं, “आज भी जब भी इस इलाक़े से कोई जत्था किसानों के मसले पर आवाज़ उठाने के लिए निकलता है, शायद दिल्ली बॉर्डर पर प्रोटेस्ट कैंप से जुड़ने के लिए, तो वे पहले कॉमरेड भगत सिंह के घर जाकर उनकी शुभकामनाएं लेते हैं. सीपीआई-एम की पंजाब कमेटी के सदस्य मट्टू संकेत करते हुए कहते हैं, “शारीरिक कारणों से उनका पहले की तरह कहीं आना-जाना बेहद कम हो गया है. लेकिन इनका समर्पण और जोश पहले जितना ही है. यहां तक कि अभी वह रामगढ़ और गढ़शंकर में उस मुहिम का हिस्सा हैं जिसके तहत चावल, तेल, दाल, दूसरी अन्य चीज़ें और पैसे जमा करके शाहजहांपुर में प्रदर्शनरत किसानों के कैंप तक पहुंचाया जाना है. इसमें, उन्होंने अपना भी योगदान दिया है.”

जब हम निकलने को तैयार होते हैं, वह अपने वॉकर की मदद से तनिक फुर्ती से चलते हुए कुछ दूर चलकर हमें विदा करने पर ज़ोर देने लगते हैं. भगत सिंह चाहते हैं कि हम यह बात जान लें कि जिस देश के लिए उन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी उस देश के हुक्मरान उन्हें बेहद नापसंद हैं. यह जनताना सरकार बिल्कुल नहीं है. वह कहते हैं, “आज़ादी की लड़ाई की विरासत को थोड़ा तो संभालिए. जिस तरह की राजनैतिक ताक़तों का वह प्रतिनिधित्व करते हैं, आज़ादी की लड़ाई में वे कहीं नहीं थीं. उनमें से एक की भी मौजूदगी नहीं थी. अभी संभाला न गया, तो वे इस देश को बर्बाद कर देंगे.” अंत तक आते-आते उनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ झलकने लगती हैं.

और वह अंत में जोड़ते हैं, “लेकिन यक़ीन मानिए, इस हुकूमत का सूरज भी डूबेगा.”

लेखक की तरफ़ से नोट: द ट्रिब्यून, चंडीगढ़ के विश्व भारती और महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के भतीजे प्रो जगमोहन सिंह को उनके क़ीमती इनपुट और मदद के लिए दिल से धन्यवाद. साथ ही अजमेर सिद्धू को भी उनकी मदद और इनपुट के लिए बेहद शुक्रिया.

अनुवाद: सूर्य प्रकाश

P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought'.

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Translator : Surya Prakash

Surya Prakash is a poet and translator. He is working on his doctoral thesis at Delhi University.

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