पूँजीवाद : तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ

मुक्तिबोध शृंखला : 24

मनुष्य इतना अकेला क्यों है? मनुष्यों में इतने फासले क्यों हैं? क्यों अमानवीय दूरियां हम सबको घेरे हुए हैं? या एक दूसरे से अलग किए हुए हैं? जीवन में इतना ओछापन क्यों हैं? सतहीपन, छिछलापन क्यों हैं? क्यों इंसान खुद को हासिल नहीं कर पाता? क्यों हम सब अपने बदले किसी और का जीवन जीते रहते हैं? क्यों अपना किया हुआ श्रम अकारथ लगता है? क्यों हर नई सुबह मन में स्फूर्ति नहीं जगती? क्यों हमेशा कुछ खो गए होने का अहसास दीमक की तरह मन को चाटता रहता है? हमारे चारों तरफ व्यक्तित्वों के खँडहर क्यों? ज़िंदगी क्यों ढहकर मलबा बन जाती है? क्यों हम आँख उठाकर अपने चारों तरफ जो कुदरत का नूर है, उसे देख नहीं पाते, उसमें डूब नहीं पाते? क्यों भव्यता, ऊँचाई का दर्शन करने में हमारी गर्दन दुखने लगती है? क्यों हम अपनी खोह में दुबके रहना चाहते हैं? जीवन के विस्तार का आभास हमें क्यों नहीं हो पाता?

यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें-तुम्हें, सबको रीछ-शेर-भालू-चीता-हाथी बनाये हुए है?”  

‘समझौता’ कहानी का अंत इस प्रश्न पर होता है। कहानी में एक दूसरे को खा जाने, एक दूसरे पर चढ़ बैठने का नाटक करने की कवायद कराई जाती है। यह नाटक है। लेकिन सच तो यह है कि हम ऐसी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं जिसमें हर कोई दूसरे को खा डालना चाहता है, वह उसका भोज्य है। हर पड़ोसी दूसरे पर निगाह रखता है, वह जासूस या खबरी है। किसी की तरक्की की शर्त किसी का और नीचे धँस जाना है?

रोज़-रोज़ हम

“अपनी आँखों देखते खुद का ही भुस

जो लगातार बनता रहता

नापते बुरादा रोज़ ज़िंदगी का

व सोचते रहते हैं …

ईंधन, केवल ईंधन

हम केवल जलाऊ लकड़ी हैं

अन्य के लिए !!…

‘ज़िंदगी बुरादा है तो बारूद बनेगी ही में अपनी व्यर्थता की ट्रेजेडी मन को छेद देती है।

‘सूखे कठोर नंगे पहाड़’ कविता पूछती है कि सौंदर्य का पृष्ठ भाग क्यों बीभत्स है?

“ऊँचे मकान का चिकना कितना भी सुन्दर हो अग्रभाग,

पर पीछे से उद्ध्वस्त

कि लंबा-चौड़ा वह खँडहर विदीर्ण।

है वहाँ (मनस-व्यभिचारी से) मानुषी भूत

जो अपने मरे-हुए-पन में

जी हुई ज़िंदगी रहे आँक

(हैं टाट बोरियों के विदीर्ण

साँवले, सादे हुए परदे भूरे अनेक

टूटे उखड़े ढीले दरवाजे रहे ढाँक)

है मरी हुई ज़िंदगी घिनी की कटी नाक!

उस खँडहर के आँगन विभग्न

में (दरवाज़ा सम्मुख ) बिखरे हैं सभी ओर

जंगली अजीब

निष्प्राण नपुंसक पंख

और उनमें निकले हुए दीर्घ-

 लघु पर असंख्य!

निःशक्त मनुष्यों की अन्तस्-हननशील

आत्माओं के वे हैं भीषण जाग्रत प्रतीक!!”

मरा-हुआ-पन, निष्प्राण, नपुंसक पंख और निःशक्त मनुष्यों की अन्तस्-हननशील आत्माएँ!

रास्ते पर चलते फिरते जो पुरुष और कमनीय नारियाँ स्मित भाव लिए दीख जाते हैं, वे मोम की पुतलियाँ हैं। उनमें भी उनकी अपनी आत्मा की चमक नहीं। जो भव्य पुरुष खुद को उच्च वंश के दीप- स्तम्भ बताते हैं और उसके दम्भ में डूबे हैं, वे बँधे हुए आदेश मात्र हैं। उनके चतुर हास और भावुक छल के कौशल-विलास को देख कर हम भ्रम में न पड़ जाएँ। ये जीवन के विराम चिह्न भर हैं, शून्य के गोल-गोल बिंदु। इनके सहारे उस तांत्रिक का खगोल चलता है।

ये ताकतवर दीखते भर हैं, असल में तो

“ये स्वयं भीति-आतंकग्रस्त, इनका निज का है बुरा हाल!”

ये जीवित दीखते हैं

“पर मूर्त प्रेत

(है प्रेत-तंत्र)

ये तांत्रिक के अधिकार-क्षेत्र

की दमनशील आतंकशील सरकार घोर के कल-पुर्जे ये लौह-यंत्र।”

ये डरे हुए लोग मित्रता के योग्य नहीं।

कविता हमें इस भव्यता और चमक के तिलिस्म से सावधान करती है। संस्कृति के इस भव्य प्रासाद की नींव खून के समंदर में डूबी है, यह तो हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी कहा था।

यह तिलिस्म, इंद्रजाल पूँजीवाद का है। मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे। मार्क्सवाद उनके यहाँ ठीक वैसे नहीं दिखलाई पड़ता जैसे नागार्जुन या केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ। उनके मार्क्सवाद और कविता के बीच एक समय आलोचकों ने अंतर्विरोध देखा था। वह वक्त गुजर चुका है। मार्क्स की 1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों का प्रकाशन मुक्तिबोध के वक्त भारत में हुआ हो और यहाँ के मार्क्सवादियों ने उसे पढ़ा हो, इसके प्रमाण नहीं। अंग्रेज़ी में वह 1956 में ही प्रकाशित हो पायी थी। उसके बाद फ्रेंच में। लेकिन भारत में उसपर चर्चा बहुत बाद में शुरू होनेवाली थी। उससे बिलकुल स्वतंत्र मुक्तिबोध अलगाव और पार्थक्य का सिद्धांत अपनी कविताओं, कहानियों और निबंधों के माध्यम से प्रतिपादित कर रहे थे। वे अपने आस पास उद्ध्वस्त जीवन के दृश्य देख-देखकर विचलित थे। जीवन को इतना एकाकी और क्षुद्र तो न होना था? इंसानी ज़िंदगी का वादा तो कुछ और था! फिर क्या हुआ?

एक समझ है और अभी भी यही है कि पूँजीवाद मानव-समाज की सर्जनात्मकता के लिए बहुत बड़ी छलाँग है। वह मनुष्य की रचनाशीलता पर लगे बंधनों से उसे आज़ाद कर देता है। मुक्तिबोध के लिए पूँजीवाद एक भयनाक दुर्घटना है जिसकी चपेट में आकर मनुष्य खुद अपने आप से अलग हो जाता है। वह अपनी चेतना खो बैठता है, संवेदन-क्षमता से वंचित हो जाता है। ‘एक रग का राग’ कविता में इस दुर्घटना का चित्र:

“…पी ज़हर यह

सुन्न हुई नाड़ियाँ

गयी अब, पानी सब गया सूख

ह्रदय में उदासी की फैली हैं मटमैली कीचड की खाड़ियाँ !!

चक्के टूट गए हाय!!”

और

“ज़िंदगी की नयी बैलगाड़ियाँ

टूट गईं निरुपाय!!

(सौंदर्य छूता नहीं

शिराओं में हल्की-सी मूर्छना,

चेतना निर्वीर्य)

दार्शनिक मर्मी अब

कोई सरगरमी अब

छू नहीं पाती है।”

पूँजीवाद के पहले की संस्कृतियों और समाजों की तुलना में प्रगतिशील होने के दावे को “पूँजीवादी समाज के प्रति” कविता में मुक्तिबोध नामंजूर कर चुके थे:

“इतने प्राण, इतने हाथ; इतनी बुद्धि

इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि

इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति

यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति,

इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद

जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध

इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर जाल—”

प्रचुरता और समृद्धि वास्तव में निर्बंध भोग का दूसरा नाम है. बाकी आविष्कार, ज्ञान निर्माण और उनके चलते प्राप्त हुआ परिष्कार, बल, भव्यता, सब कुछ पाखंड है। यह सारा जाल सिर्फ 

“केवल एक जलता सत्य देने टाल।”

वह जलता हुआ सत्य क्या है जिसको टाल देने के लिए, जिसका सामना करने से बचने के लिए यह सारा आयोजन किया जाता है? असल में तो इस सुगंध के पीछे, इस चाकचिक्य के भीतर ईर्ष्या, घृणा और हिंसा का पीव भरा है:

“छोड़ो हाय, केवल घृणा औदुर्गंध

तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध

देती क्रोध मुझको, ख़ूब जलता क्रोध

तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध

तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र

तुझको देख मिलती उमड़ आती शीघ्र

तेरे हास में भी रोग-कृमि हैं उग्र”

पूँजीवाद में कुछ भी ऐसा नहीं जिसका स्वागत किया जाए। उसके रक्त में ही सत्य का अवरोध है। वही सत्य जो जलता हुआ है और जिसका सामना नहीं किया जाता इस संस्कृति की आड़ में। वह असत्य संभवतः वही है जिसकी खोज गाँधी कर रहे थे। जो मनुष्यता की माप खोजने का प्रयास था,  पैमाने की तलाश। वह सत्य जो प्रेम, न्याय और समानता के बिना हो ही नहीं सकता और जिस वजह से उन्होंने हिद स्वराज लिखा था।

पूँजीवाद आखिरकार हिंसा की संस्कृति का ही दूसरा नाम है। वह जीवन शैली, जो मुक्तिबोध के शब्दों में ‘मारो, खाओ, हाथ मत आओ’ के सिद्धांत ने विकसित है। इसमें सच्चे मनुष्य की कल्पना छलावा है। वह व्यक्तिगत वीरता हो सकती है, नियम नहीं। प्रतियोगिता और कुछ नहीं सफलता के गोल-गोल चक्करदार घुमावदार जीने पर चढ़ने की आपाधापी में एक दूसरे को कुचलकर आगे बढ़ जाने का दूसरा नाम है।

पूँजीवाद का अर्थ ही है प्रत्येक व्यक्ति को मात्र उसकी उत्पादनशीलता, उपयोगिता से मापना। उसकी परिणति आखिरकार हिटलर में होनी है जिसने यहूदियों के चमड़े से लैंप-शेड बनाने की सोची। मनुष्य को विखंडित करके उसके एक एक अंग का कैसे उपयोग किया जा सकता है, यही तो हिटलर के वैज्ञानिक जानने की कोशिश कर रहे थे। हिटलर क्या अपवाद था? इसी पूँजीवादी लोभ ने क्या भारत में आदिवासियों का संहार एक सभ्य अनिवार्यता है तो इसी पूँजीवादी लोभ की हिंसा के कारण। और चीन ने अपनी पूरी आबादी को आज्ञाकारी उत्पादनशील इकाइयों में ही तो शेष कर दिया है?

‘पूँजीवादी समाज के प्रति’ कविता पूँजीवादी समाज को सम्बोधित है। वह समाज जो पूँजीवाद के सिद्धांत से सहमत या उससे सम्मोहित है। यह जीवन विवेक एक विरुद्ध है क्योंकि यह मनुष्यता का अपहरण कर लेता है। इसलिए इसे समाप्त हो जाना चाहिए:

“तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।

मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक

अपनी उष्णता से धो चलें अविवेक

तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ

तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।”

कविता में भाषा की वाग्मिता की शक्ति का इस्तेमाल किया गया है और इसे एक हद तक सपाट कविता कहा जा सकता है। लेकिन पूँजीवाद अपने आप में मृत्यु है, वह व्यर्थ है, किसी भी मायने से खाली, इसे कहने के लिए भाषा की किसी वक्रता की आवश्यकता नहीं। 

जो उसे अनिवार्य चरण मानते हैं मानव समाज के विकास के इतिहास में, मुक्तिबोध की कविताएँ या रचनाएँ उनसे सहमत नहीं मालूम पड़ती हैं। आवश्यक नहीं कि हम इस आत्महनन का वरण करें ही! वे जो यह मानते थे कि यह मनुष्य को मुक्त करेगा, स्वतंत्रता इसका पहला मूल्य होगा और इसे सबके भले का ख्याल रहेगा, वे भी आशंकित थे कि इसकी हिंसक चिरक्षुधा हर चीज़ को, एक-एक पत्ते, बेलबूटे को निगल जाएगी, यह नदियों को सुखा देगी और सारे पानी को खारा कर देगी। यह मात्र उनकी सदिच्छा थी कि एक दिन इसकी दौड़ थमेगी और यह स्थिरता को प्राप्त करके मनुष्य को अवसर देगा कि वह अपने बारे में सोच सके।

पूँजीवाद के पैरोकार जॉन स्टुअर्ट मिल में अंतहीन प्रगति, समृद्धि के लोभ से सावधान किया था,

मैं स्वीकार करूँ कि मैं जीवन के उस आदर्श से प्रभावित नहीं जिसमें वे लोग विश्वास करते हैं जो मानते हैं कि मनुष्यों की सामान्य स्थिति हमेशा किसी तरह आगे बढ़ने की आपाधापी की है, एक दूसरे को कुहनी मारते हुए, दबाते, कुचलते, एक दूसरे के पाँव पर चढ़ जाते हुए …”   

मिल ने इसे विकर्षक बतलाया. उन्होंने कहा, ऐसी दुनिया जिसमें एकांत को नष्ट कर दिया गया हो एक अत्यंत  दयनीय आदर्श है। मनुष्यों को उच्च विचार के लिए एकांत के क्षण, अवसर चाहिए, वे प्राकृतिक सौंदर्य और उसकी भव्यता को आत्मसात कर पाएँ, ऐसे मौके उसके लिए होने चाहिए। यह मिल की कामना थी। उन्होंने चेतावनी दी,

“एक ऐसी दुनिया का ख़याल कोई बहुत तसल्लीबख्श नहीं जिसमें प्रकृति की स्वाभाविक गतिविधि का कुछ भी शेष न रह जाए, ज़मीन का हर टुकड़ा जब किसी न किसी तरह इस्तेमाल कर लिया गया हो… हर वानस्पतिक निर्जन या प्राकृतिक चारागाह जोत दी गई हो, हर चौपाया या पंछी जिन्हें इंसान ने अपनी ज़रूरत के लिहाज से पालतू न बनाया हो, अगर भोजन में उसके प्रतिद्वंद्वी बन जाए, हर झाड़ी या अनुपयोगी पेड़ अगर उखाड़ डाला जाए और शायद ही कोई कोना बाकी छोड़ा जाए जहाँ जँगली फूल की कोई झाड़ी खिल सके ..”

इस खतरे को पूँजीवाद के पैरोकार भी महसूस कर रहे थे। यह जिन्न अगर बोतल से निकला तो वापस उसमें बंद नहीं किया जा सकता। लेकिन उन्हें भरम था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता का सिद्धांत हर विसंगति को दूर कर देगा। यह भ्रम था। व्यक्तिगत स्वतंत्रता भ्रम है और असत्य है। इसलिए कि वह हर किसी को उपलब्ध नहीं। सिर्फ खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता है और वह भी नहीं। श्रमिक की देह उसकी नहीं रह जाती। उसके श्रम की कीमत वह नहीं लगा सकता। कोई मैं सच्चा मैं नहीं रह जाता। स्वतंत्रता का वादा पूँजीवादी झूठ है। ‘ज़िंदगी का रास्ता’ पूँजीवादी ह्रास के काल का वर्णन करती है:

“… पूँजीवादी ह्रास के इस भैरव काल में

बादामी कागज़-सा प्राणहीन

दिन फीका रहता है,

किसी अस्वाभाविक प्रकाश की पीली-भूरी धुंध में

व्यक्ति, समाज, घर, रास्ते के पत्थर

आभासित होते हैं 

अमूर्त छाया से।

मानो कई श्वेत-वस्त्रधारी इस मानव ने

मानवता त्याग दी।

वर्तमान समाज के घेरे में

व्यक्ति और व्यक्तित्व

स्वयं के मूल्य से चमक नहीं पाते हैं।”

मुक्तिबोध की कविता की इस निरंग गद्यात्मकता से नेमिजी जैसे उनके प्रशसंक भी कई बार विचलित हो जाते थे लेकिन यह जानते हुए भी कि कविता संगीत के बाद सबसे अमूर्त और सूक्ष्म कला है, मुक्तिबोध को कहना ही पड़ता था, जैसा ‘अँधेरे में’ में उन्होंने लिखा,

“कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ

वर्तमान समाज चल नहीं सकता।

पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,

स्वातन्त्र्य व्यक्ति का वादी

छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,

जन को।”

मुक्तिबोध में मिल की यह पैगंबरी पीड़ा भरी चीख सुनाई देती है: यह ज़िंदगी बिकने के लिए नहीं, यह अपनी शर्त पर खिलने को मिली थी! इसलिए पूँजी पर टिके इस समाज को बदलना ही होगा।

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