मुक्तिबोध शृंखला:16
‘समझौता’ कहानी का अंत इस प्रश्न से होता है कि वह कौन सी अदृश्य शक्ति है जो हमें आपको पालतू भालू बन्दर बनाकर नचाती रहती है। किसके हाथ हमारे गले के पट्टे की चेन है। हमारे ‘मैं’ की हत्या किस तरह कर दी जाती है। किस तरह हमें गुलामी बर्दाश्त करना सिखलाया जाता है। हम खुद इस दासता को न सिर्फ सहते हैं बल्कि दूसरों को उसमें दीक्षित करना अपना कर्तव्य मानने लगते हैं। जो अनुकूलित होने से इनकार करे, हमें अपना शत्रु नज़र आने लगता है और हम उसकी हत्या होते देखते ही नहीं, कई बार खुद उसकी हत्या को तैयार हो जाते हैं। चलते फिरते शिरविहीन कबंधों का यह संसार कितना उदास और कितना भयावह है। चारों ओर जाने कितने हताहत व्यक्तित्व हैं। कितने सत्यों की भ्रूण हत्या कर दी गई है।
मुक्तिबोध की शिकायत इस ज़माने से इसी वजह से है। प्रकृति ने मनुष्य के रूप में जिस संभावना को गढ़ा, मानव के रूप में जो स्वप्न देखा उसका ऐसा अनादर कैसे सहन किया जा सकता है? उनकी कविता “आ-आकर कोमल समीर!” में यह दुख इस प्रकार प्रकट होता है:
“नित देख-देख उद्ध्वस्त शिखर जीवन के, जन के
मैं आहत हो गया,
प्राण का श्वास रुक गया।”
यह एक प्रकार का जनसंहार है, जो बिना रक्तपात के रोज चलता ही रहता है। यह रोज़ाना की आपदा है। एक तूफ़ान या भूकंप जो सब कुछ ढाह देता है, उजाड़ देता है,
“देखा विस्मयपूरित दृग से
आस-पास सब ओर स्तब्धतः
सुंदर मूर्ति और मीनारों के खण्डहर हैं इस जीवन के।”
क्या प्रत्येक विनाश का हिसाब रखा जा सकता है?
“उड़ते तिनके
भग्न गुंबजों की घन मूर्छा।
कितने छप्परों के गिरने की इच्छा।
कितने छप्पर, कितने गुंबज
टूटे हैं देखा गिन-गिन के।”
जो भग्न हुए हैं, जो टूटे हैं, वे एक सघन मूर्छा में हैं, अचेत हैं अपनी शिखरता से च्युत हो जाने की स्थिति को लेकर भी। मूर्छा के लिए गहन विशेषण का प्रयोग शब्दों के प्रति मुक्तिबोध की सजगता का एक प्रमाण है। मुक्तिबोध विशेषण-प्रिय हैं और हिंदी कविता में उनकी तरह विशेषणों का सर्जनात्मक प्रयोग शायद ही किसी ने किया है। इतना व्यंजक और इतना मौलिक। मूर्छा मृत्यु नहीं है। लेकिन घन मूर्छा से किसी को कैसे जगाया जाए? और कितने छप्पर गिरने को तैयार हैं। उनके गिरने की इच्छा भी देखी है। क्या यह हत्या है या आत्महत्या? इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि मुझे खुद को ही मार लेने के लिए तैयार किया जा सके?
जो हो, यह जीवन नहीं जीवन का ध्वंसावशेष है। लेकिन आक्रांता मात्र इस हनन से संतुष्ट नहीं होता। वह इस जीवन को अपमानित भी करता है:
“श्याम स्तब्ध जीवन की काजल-
थर की दीवारों पर निश्चल,
किसी अबूझ शक्ति ने
उँगली से वीभत्स चित्र खींचे हैं
कुछ अश्लील बातें लिक्खी हैं,
कुछ गालियाँ साथ लिक्खी हैं,
चिता-धूम-सी घृणित विषैली वायु गा रही
खण्डहर के गीत कि कैसी आयु जा रही।”
एक उम्र खत्म हो रही है, एक लाश जलाई जा रही है। जो जल रहा है वह सिर्फ शरीर नहीं है:
“जलती ही जाती है मानव आत्मा की यह अस्थि-सुदृढ़ता।”
जलना दो तरह का हो सकता है। एक जो नष्ट करता है, दूसरा जो प्रकाशित करता है। मानव-आत्मा के भीतर की दृढ़ता ही नहीं, सुदृढ़ता और वह भी अस्थि समान सुदृढ़! उसे जब तक न जला दिया जाए, शरीर से मनुष्य को समाप्त नहीं किया जा सकता। क्या इस पूरे नाश के बीच आत्मा की सुदृढ़ता ही जलकर प्रकाश दे रही है?
इसीलिए ‘अँधेरे में’ कविता में इंटेरोगेशन के दौरान आत्मा की खोज होती है:
“देखा जा रहा–
मस्तक-यंत्र में कौन से विचारों की कौन सी ऊर्जा,
कौन-सी शिरा में कौन-सी धकधक,
कौन-सी रग में कौन-सी फुरफुरी,
कहाँ है पश्यत् कैमरा जिसमें
तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते,
कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय
कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान!
भीतर कहीं पर गड़े हुए गहरे
तलघर अंदर
छुपे हुए छापाखाने को खोजो।
जहाँ कि चुपचाप खयालों के पर्चे
छपते रहते हैं (बाँटे जाते)
इस संस्था के मंत्री को खोजो
शायद, उसका ही नाम हो आस्था,
कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का
कहाँ है आत्मा?”
असल मसला इस आत्मा को नष्ट कर देने का ही है। वैसे इस काव्यांश में आत्मा के साथ ‘आस्था’ के जिक्र को नजरअंदाज न कीजिएगा। इस आत्मा को बचा लेना आगे के जीवन के लिए सबसे ज़रूरी है और उतना ही ज़रूरी है आस्था को बचाना। ‘कहीं मैं सिनिक न हो जाऊँ’ यह आशंका मुक्तिबोध के ‘मैं’ को सताती रहती है। “अँधेरे में” के इस इंटेरोगेशन के दृश्य में जिसे यंत्रणा दी जा रही है, वह अपने शरीर से इस आत्मा को अलग करता है। बल्कि आत्मा ही खुद को बचाने की जुगत करती है:
“चाबुक-चमकार
पीठ पर यद्यपि
उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं
पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,
देह में रेंग रही संवेदना के
झनझन तारों को जबरन
समेटकर सब वह
वेदना-विस्तार करके इकट्ठा
मेरा मन यह, ज़ोर लगाकर,
बलात् उनकी छोटी सी कड्ढी
गठान बाँधता सख्त व मजबूत
मानो कि पत्थर।
…
उसी गठन को हथेलियों से
करता है चूर-चूर,
…
मन यह हटता है देह की हद से
जाता है कहीं अलग जगत में।”
आत्मा को बचा लेना इस ध्वंस को संपूर्ण होने से रोक देना है। ‘आ-आकर कोमल समीर’ कविता में ज़िंदगी के गुंबज पतित होते हैं, छप्पर गिरते रहते हैं। ‘ज़िंदगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही’ में बुलबुल के उल्लू न बन पाने के अफसोस के बीच
“बस वहीं कहीं
…
जूठे बर्तन माँजते हुए पीले दुबले
बालक चाकर-से मेरे दिन
अपनी ही आँखों देखते खुद का ही भुस
जो लगातार बनता रहता
नापते बुरादा रोज़ ज़िंदगी का
व सोचते रहते हैं…
“ईंधन, केवल ईंधन
हम सिर्फ जलाऊ लकड़ी हैं अन्य के लिए !!
….
तकलीफ भरी बेचैन आत्मा की गठरी
दाबकर, लौटता हूँ घर..”
एक जगह आत्मा की जो दृढ़ता जल रही है, जलाई जा रही है, दूसरी जगह वह खुद को आज़ाद कर लेती है और तीसरी जगह किसी तरह उसे, आत्मा की गठरी को, बचाकर छिपाकर कर वापस घर लाया जाता है।
‘आ-आकर कोमल समीर’ को आगे पढ़ें:
“जलती ही जाती है मानव आत्मा की यह अस्थि-सुदृढ़ता।
सृजनशील प्राणों के निर्झर-उद्गम पर हिम-प्रस्तर जड़ता।”
प्रत्येक प्राण सृजनशील है, रचना की क्षमता हर किसी के पास है। होता यह है कि उस सृजनशीलता के झरने के मुँह पर बर्फ का पत्थर जड़ दिया जाता है और सर्जना का प्रवाह भीतर घुटकर रह जाता है।
मनुष्य की सृजनशीलता के इस धारावाहिक हत्याकांड के हम सब साक्षी हैं। मुक्तिबोध उसे उसकी पूरी भयावहता में महसूस करते हैं,
“एक घोर, भय-स्तब्ध स्वप्न में
हत्या-सा, मैंने प्रिय जन की श्याम मृत्यु-सा
यह सब देखा।
जीवन का प्रातर्पावन मधु-श्वेत वक्ष पर
मलिन, वासना व्याकुल, भयकर रजनी तम को चढ़ते देखा।
….
ज्यों बासी निर्माल्य कुसुम-दल
काले पड़कर बुरे बासते
त्यों मानव की सृजनशील मृदु मानवता को सड़ते देखा। “
चाहें तो आप आज कह सकते हैं कि क्या फूल की सार्थकता माला में गूँथे जाने में ही है, लेकिन यहाँ तो कवि उन फूलों को एक दूसरे से जुड़ते और एक अर्थ प्राप्त करते देखना चाहता है। मानवता जो मृदु है और सृजनक्षम है, सड़ जाती है उपयोग के बिना।
लेकिन जो ज़िंदगी पीसकर बुरादा बना दी गई है, वह बारूद भी बन सकती है। शर्त आत्मा को बचा लेने की है:
“तकलीफभरी बेचैन आत्मा की गठरी
दाबकर, लौटा हूँ घर, कर नौकरी।
अलग अपना एकांत सृजन करने
लेता हूँ ओढ़ घना काला-काला कंबल
वह आश्रय स्थल-स्थल
जिसके छेदों में से प्रकाश के तारक-दल
मेरी गहरी दरगाह-दिवालों के भीतर
अँधियारे के बेमाप अकेले में
चुपचाप इशारे करते हैं !!”
अपने अलग एकांत का सृजन करना पड़ता है। इसी तुच्छता से भरे जीवन में महानता के दृश्य देखे जाते हैं। एकांत सृजित करना, दुनिया में रहते हुए उसे अपना हर कोना सुपुर्द न कर देना एक तपस्या है। इस अंश में ‘दरगाह-दिवालों’ पर ध्यान ज़रूर दीजिए। मुक्तिबोध की काव्यभाषा में पवित्रता की तलाश में धार्मिक आशयवाले शब्द प्रचुरता से पाए जाते हैं। यहाँ दरगाह का सरल शाब्दिक अर्थ चौखट या आस्तान भी हो सकता है। लेकिन वह किसी वली का मज़ार भी हो सकता है। कंबल में छेद हैं तो क्या हुआ, उनमें से होकर तारों का उजाला खामोश इशारे करता है।
यह ऐसा वक्त है जब मैं खुद के सामने हूँ, अपना सामना मुझे ही करना है,
“बस दूर रह गई दुनिया
अब मैं ही हूँ,
आमना-सामना मेरा मुझसे सबसे है।”
यह कल्पना का क्षण है, सृजन का क्षण है:
“अब गणित चला मैदान मारने
आसमान घेरने।
कल्पना चली चंद्र के शुक्र के द्युति-प्रस्तर बीनने।”
लेकिन कल्पना की इस उड़ान के साथ
“अब चली वेदना भीषण प्रश्न पूछने”
पहली कविता में जहाँ ध्वंस के दृश्य देखते हैं, वहीं यह भी
“सृजनशील सरिता निसर्ग की
मानव की
चिर क्लान्तिहीन है, ‘
शान्तिहीन है, भ्रान्तिहीन है।”
जब सब कुछ सड़ रहा हो, चारों ओर से मृत्यु की बास आ रही हो, उसी समय
“विश्वव्यापिनी ज्वालाओं की जिह्वाओं से
नए वेद मन्त्रों के छंदोच्चरित सत्य को
जगते देखा।”
और तब
“सृजनशील आत्मा निसर्ग की
मानव की चिर क्लान्तिहीन है
उसके नभमंडल में मैंने नव-सूर्यों को उगते देखा।”
‘ज़िंदगी बुरादा तो…’ में ज्वाला की जगह आग है:
“आदतन सिर्फ आदतन
या इरादतन भी अँधेरा मेरा ख़ास वतन
जब आग पकड़ता है,
सामने अँधेरे आसमान से पहाड़ टकराते
भीतर के विस्फोटों से सूर्य टूटता है।”
क्या यहाँ अँधेरा वतन आग पकड़ता है या अँधेरा जो मेरा ख़ास वतन है, वह आग पकड़ता है? पहाड़ों के अँधेरे आसमान से टकराने और सूर्य के अपने भीतरी विस्फोट से टूटने के दृश्य की ताकत आपको अपनी गिरफ्त में ले लेती है। याद आता है मुक्तिबोध का वह पत्र नेमिचंद्र जैन को जिसमें वे एक शक्तिशाली भाषा की कामना करते हैं।
इस आग में सब कुछ जलकर भस्म होता है लेकिन
“… वहीं कहीं
अधजले ठूँठ की कटी-पिटी डाल पर
बच गए घोंसलों में पक्षिणियाँ अपने बच्चे सेती हैं
तन की गरमी से मन की गरमी देती हैं।”
जीवन बचा रहता है।
‘.. कोमल समीर’ में मृत्यु के बीच नव सूर्य उगते दीखते हैं और
“सहसा कोटि-कोटि जन के
चकित पदों की शिथिल ग्लानि को विद्युत् गति की महासंयमित धाराओं में बहते देखा।”
‘विद्युत् गति की महासंयमित धारा’ पर भी थोड़ी देर रुकिए।
नए मनुज की जलती आँखों में एक विश्वव्यापी सपने का मद तिर रहा है। यह मनुज मैं, एक मामूली आदमी भी तो हो सकता हूँ, मेरे भीतर भी तो इस नएपन के सृजन का स्रोत हो सकता है:
“मैं जो भी एक नगण्य व्यक्ति
करता रहता दिन-रात काम,
पर मटमैली सारी राहों को
एक नयी ही दिशा अचानक गहते देखा
विश्व-सृजन का मूल स्रोत
मेरे उर में भी बहते देखा।”
वह जो दिन भर काम करके अपने एकांत में लौटता है, जिसे उसी ने गढ़ा है, वही इस कविता में टेबल पर सर झुकाए लिखे जा रहा है। उसके उलझे बाल को कोमल समीर सहलाता है और
“खींचता एक अंगार-रेख मेरे अन्तर
लिखता स्वर्णिम अक्षर अनेक नूतन कविता के।“
सृजन आरंभ हो चुका है. मैं खुद को हासिल कर चुका हूँ और इस कारण
“मेरे उर
में बही जा रही नूतन रामायण की स्वर्णिम अरुण
पंक्तियाँ विद्युत् गति से“
यह तब हो सकता है जब मैं खुद को पूरी तरह खोल दूँ और अपना सब कुछ सौंप दूँ। किसको?
“नत मस्तक मैं स्वार्पण मति से
तुरत खोल देता हूँ अन्तर के लम्बे पत्तों को उन्मन.”
दोनों कविताएँ सरल हैं। इतनी कि आलोचना हतप्रभ रह जाती है। सवाल यह है कि जीवन की सबसे मामूली सचाइयों को हम पहचान पाते हैं या नहीं? हमारा उनसे रिश्ता क्या है?
“सबसे मामूली जो सचाइयाँ हैं
कइयों को
खूँखार मौत की स्याह खाइयाँ वे
अन्यों को
वे जीने की गहरी ऊँचाइयाँ हैं
असरदार ऊँची दवाइयाँ हैं। “
जो किसी के लेखे विष है वह मेरे लिए अमृत हो सकता है। यह तय तो इसी बात से होता है कि हम किस तरफ हैं? मौत के या ज़िंदगी के? तय करो किस ओर हो तुम, सवाल से मुराद यही है।