ध्वस्त किले में उगती वन्य वनस्पति

मुक्तिबोध शृंखला : 10

कहते हैं लोग-बाग बेकार है मेहनत तुम्हारी सब

कविताएँ रद्दी हैं.

भाषा है लचर उसमें लोच तो है ही नहीं

बेडौल हैं उपमाएँ, विचित्र हैं कल्पना की तस्वीरें

उपयोग मुहावरों का शब्दों का अजीब है

सुरों की लकीरों की रफ्तार टूटती ही रहती है.

शब्दों की खड़-खड़ में खयालों की भड़-भड़

अजीब समां बाँधे है!!

गड्ढों भरे उखड़े हुए जैसे रास्ते पर किसी

पत्थरों को ढोती हुई बैलगाड़ी जाती हो.

माधुर्य का नाम नहीं, लय-भाव-सुरों का काम नहीं

कौन तुम्हारी कविताएँ पढ़ेगा

मुक्तिबोध को प्रायः दुरूह कवि माना जाता रहा है. उनकी भाषा पर ऊबड़खाबड़पन, अनगढ़पन और शब्दबहुलता का आरोप लगाया जाता रहा है. प्राय: उनकी राजनीति के कारण मुक्तिबोध के प्रशंसक भी उनकी भाषा को लेकर असुविधा का अनुभव करते रहे हैं.  इसके पीछे कविता की एक विशेष समझ काम कर रही है जिसके मुताबिक कविता एक तराशी हुई कलाकृति है जिसकी सारी नोकें घिसकर गोल कर दी गई हैं. इस समझ के अनुसार कथा-रचना में तो भाषा में फैलाव हो सकता है, लेकिन कविता शब्दों का ऐसा प्रयोग है जो अनिवार्यता के सिद्धांत का पालन करता है. कविता में शब्द ही सबसे पहले है और वही अंतिम भी है, कवि ऐसे ही शब्द चुनता है जिनके बिना उसका काम नहीं चल सकता और जिन्हें दूसरे शब्दों से बदला नहीं जा सकता. हर कविता एक गठी हुई संरचना है, ऐसी इमारत है, जिसका एक-एक शब्द एक-एक ईंट की तरह है, जो खास तरह से एक पर एक जमाई जाती हैं और बीच से उनमें से किसी को खिसका देने से इमारत के भरभरा कर गिरने का खतरा है. कविता छोटी हो या लंबी, यह बात दोनों पर लागू होती है.

इस समझ के अनुसार कविता एक संरचना और एक शिल्प है. यह भी कि हर कविता एक फ्रेम में कसी रहती है. और वह फ्रेम भी कसा हुआ होता है. वह चूँकि शब्दों की संरचना है, उसके शिल्पत्व की रक्षा के लिए आवश्यक है कि उसके एक-एक शब्द में अर्थगर्भत्व का गुण हो. कवि की चिंता प्रथमतः अर्थ-संप्रेषण की होती है और वह वही होना चाहिए जो उसने सिरजा है, इसलिए भी वह सावधानी बरतता है कि न सिर्फ हर शब्द एक निश्चित अर्थ का संवहन करे, बल्कि शब्दों के बीच का क्रम भी ऐसा ही हो जो हर शब्द की अर्थ-संभावना की रक्षा करे, साथ ही शब्दों के संयोजन विशेष में भी अस्पष्टता का दोष न आ पाए. दूसरे शब्दों में, कविता के शब्द प्रयोग में फालतूपन से बचा जाना चाहिए.

अर्थ सृजन की प्रक्रिया पर ध्यान दें तो फालतूपन उपयोगी नज़र आने लगेगा. बच्ची के भाषा-संसार में आत्मविश्वास हासिल करने की प्रक्रिया बिना उसके चारों ओर शब्दों के जंगल के संभव नहीं. भाषा मात्र शब्द नहीं है, उसके साथ ध्वनियाँ, प्रयोक्ता की शारीरिक  मुद्राएँ और भंगिमाएँ जुड़ी हुई हैं. जो वयस्क हैं और भाषा के सांसारिक प्रयोग के अभ्यासी हैं, एक नए भाषा प्रयोक्ता के चारों ओर शब्दों का अम्बार लगा देते हैं. अतिशयता न सिर्फ बच्चे के, बल्कि वयस्क के भाषिक व्यवहार का अनिवार्य गुण है. हम तमाम ऐसी ध्वनियों, मुद्राओं का प्रयोग करते हैं और शब्दों का इतना अधिक निरर्थक इस्तेमाल भी कि उसमें मात्र अर्थपूर्ण शब्द अल्पसंख्यक हो जाता है. बच्ची इसी अम्बार से अर्थ निकालना सीखती है. फिर प्रश्न यह है कि क्या फालतू सचमुच फालतू है या वह अर्थ-निर्माण के लिए अनिवार्य है?

या क्या हम यह कहना चाह रहे हैं कि फालतू या अतिरिक्त शब्द दरअसल ऐसी थूनियाँ हैं, जिनके सहारे एक पौधे को खड़ा किया जाता है और फिर जब वह जड़ पकड़ लेता है तो थूनियाँ व्यर्थ हो जाती हैं ? और क्या हम ऐसा कह कर यह नहीं कह रहे कि एक वयस्क भाषा प्रयोक्ता को इस शैशवावस्था से निकल आना चाहिए और एक बार भाषा के नियमों की व्यवस्था, यानी उसके व्याकरण से परिचित हो जाने के बाद सिर्फ ज़रूरी प्रयोग ही करने चाहिए? वयस्क बच्चे जैसी आज़ादी की माँग नहीं कर सकता. उसे व्याकरण का पालन करना ही होगा.

जिसे व्याकरण कहा जाता है, उसमें एक प्रकार की यादृक्षिकता होती ही है. विट्गेंस्टाइन (ज़ेटेल-58) इस प्रसंग में एक दिलचस्प प्रश्न करते हैं:

“ऐसा क्यों है कि मैं पाकक्रिया के नियमों को यादृक्षिक नहीं कहता, और क्यों मैं व्याकरण के नियमों को यादृक्षिक कहना चाहता हूँ?”

इसका उत्तर वे यों प्रस्तावित करते हैं,

“पाकक्रिया अपने उद्देश्य से परिभाषित होती है, जबकि बोलने के साथ ऐसा नहीं है. यही कारण है कि भाषा-प्रयोग एक मायने में स्वायत्त होता है जिस रूप में पाकक्रिया और प्रक्षालन की क्रियाएँ स्वायत्त नहीं हैं. आप खराब ढंग से खाना बनाएँगे अगर आपने सही नियमों की जगह किन्हीं और नियमों का पालन किया, लेकिन अगर आप शतरंज के नियमों के स्थान पर किन्हीं अन्य नियमों के अनुसार खेल रहे हैं तो आप कोई और ही खेल खेल रहे हैं और अगर आप फलां-फलां नियमों की जगह किन्हीं और नियमों का अनुसरण करेंगे तो इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आप कुछ गलत बोल रहे हैं, नहीं, आप किसी और चीज़ के बारे में बात कर रहे हैं.

विट्गेंस्टाइन के अनुसार भाषा किसी एक उद्देश्य-विशेष को पूरा करने वाली व्यवस्था नहीं है. वे उसे एक संग्रह मानते हैं. कविता मात्र के लिए और विशेषकर मुक्तिबोध की कविता के लिए भाषा को संग्रह माने जाने वाली प्रस्तावना का उपयोग किया जा सकता है. चूँकि एक भाषा सिर्फ एक भाषा नहीं है और दूसरे, भाषाएँ दूसरी भाषाओं के सान्निध्य में जीवनयापन करती हैं, उनमें से किसी एक रूप में न्यस्त दर्शन को एक सीमा तक ही स्वीकार किया जा सकता है. इसका तात्पर्य यह है कि हर भाषा में हमेशा नई भाषा की संभावना छिपी रहती है. इस सम्भावना को कैसे रूपायित किया जाता है?

इसको दोहराना व्यर्थ न होगा कि मुक्तिबोध ने नेमिचंद्र जैन को एक पत्र में लिखा,

“मेरे अत्यंत आत्मीय विचार मराठी या अंग्रेज़ी में निकलते थे; जिनका तर्जुमा, यदि अवसर हो, तो हिन्दी में हो जाता था. .. मेरा ख्याल है कि मेरी भाषा सुन्दर न भी हो सके वह सशक्त होकर रहेगी, क्योंकि उसके पीछे अंदर का ज़ोर रहेगा. मुझे साज-सँवार की प्रतिष्ठित बोली पसन्द नहीं.

भाषा की संभावना की पहचान या तलाश इस समझ के बिना नहीं हो सकती कि उसका प्रयोक्ता भी संभावनाओं का आगार है. साथ ही यह कि उसमें अनिश्चयात्मकता का तत्व ही उसे परिभाषित करता है. इसलिए जब हम कोई योजना बनाते हैं (पुनः विट्गेंस्टाइन) तो सिर्फ इसलिए नहीं कि हमें ठीक तरीके से समझ लिया जाए, बल्कि इसलिए भी कि हम खुद भी उस प्रसंग विशेष के मामले में अपने लिए स्पष्टता चाहते हैं.

इसका अर्थ यही हो सकता है कि भाषा अपने संप्रेषणात्मकता के दायित्व से बाधित नहीं की जा सकती, न ही उसे प्रचलित अर्थ में अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र कहा जा सकता है. वह प्रयोक्ता के लिए भी अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया है. यह कहा जा सकता है कि रचनाकार जिस तलाश में है, उसके लिए उपलब्ध अर्थ-संसार में साधनों या उपकरणों की कमी है, पहले से मौजूद भंडार से उसका काम नहीं चल रहा. आगे बढ़कर यह भी कहा जा सकता है कि उसकी दिलचस्पी अर्थ-विशेष की प्राप्ति नहीं, बल्कि अर्थ-सृजन की प्रक्रिया में है. और वह कुछ नया किसी और के लिए नहीं बनाता या हासिल करता, बल्कि हर बार खुद को ही नया उपलब्ध करता है.

अर्थ की तलाश या अर्थ-निर्माण की यात्रा में किसी एक अंतिम बिन्दु पर पहुँच जाने से अधिक संधान पर ज़ोर है. इस यात्रा के क्रम में यात्री यानी कवि का बदल जाना अनिवार्य है. हर क्षण अपने को बदलता देखने की उत्तेजना उसकी भाषा को भी आश्चर्य के तत्त्व से संयुक्त करती है. लेकिन यह यात्रा प्रत्येक कवि के लिए एक-सी नहीं होती. काव्य यात्रा का बाहरी संसार की भौगोलिक दूरी तय करने वाली यात्रा से कोई मेल नहीं लेकिन कहा जा सकता है कि हर कवि स्वभावतः यात्री नहीं होता.

मुक्तिबोध का कविस्वभाव यात्री का था, यह उनकी कविताओं के शिल्प को देख कर आसानी से समझा जा सकता है. बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि वे असमाप्य यात्राओं के यात्री थे. यह किंचित आश्चर्यजनक लग सकता है, उनकी घोषित मार्क्सवादी विचारधारा को देखते हुए, जो समाजों के सफ़र को निश्चित प्रस्थान बिन्दुओं और आगमन बिन्दुओं के बीच समझती और परिभाषित करती है.

मुक्तिबोध स्वयं यात्री नहीं थे. हम कह सकते हैं कि उनकी यात्रा उनके मन के भीतर ही होती रहती थी. उनके समकालीन और दो कवियों से उनकी तुलना करें तो बात कुछ और साफ होती है. अज्ञेय बड़े यायावर थे. भारत और भारत के बाहर उनकी यात्राओं के बारे में हमें पता है. नागार्जुन का तो नाम ही यात्री था.

मुक्तिबोध को बाहरी यात्रा की सुविधा नहीं थी. साहस-यात्राओं की तो बिल्कुल नहीं. उनकी कोई भी यात्रा निरुद्देश्य नहीं हो सकी. हर सफर घरेलू आवश्यकताओं से निर्देशित था. अपने मित्रों को वे इसलिए हसरत से भी देखते हैं. वे अंतत: एक कस्बाई परिवेश में जीवन बिताने को बाध्य हुए. यह नहीं कि बाहर निकलने की उनकी इच्छा न थी. पर हर बार कुछ ऐसा होता रहा कि वे किसी बड़ी जगह से छोटी जगह पर लौट आने को बाध्य हुए. प्रेम-विवाह के बाद बसी गृहस्थी को वे कभी किसी बड़े सामाजिक या कलात्मक लक्ष्य के आगे छोड़ नहीं पाए. 1945 में नेमिचन्द्र जैन को एक अन्य पत्र में उन्होंने इस घरेलू कर्तव्य की बाधा के बारे में लिखा था.

इस पत्र का उल्लेख पहले किया जा चुका है. उसके आगे के अंश को फिर से ध्यान से पढ़ने पर मुक्तिबोध की भाषा की प्रकृति को समझ पाने में सहायता मिलती है,

सरदी की पारदर्शिनी, हल्की-हल्की चोटें करने वाली यह धूप और उसका ऊष्ण स्पर्श मानो मुझे जगा देता है. मन दैनिक नींद से जाग उठता है. वृक्षों के पत्र सम्भार पर फैलकर उनके गाढ़े हरियाले अंतराल में छाया-प्रकाश उत्पन्न करने वाली यह धूप मन में सपने जगा देती है. कोई विलास-स्वप्न नहीं वरन विजय-स्वप्न. जिन्हें देख लें पुराने मकान की जीर्ण मुंडेर पर बैठकर दूसरे के आँगन में झाँकनेवाले लोग – कर्तव्य के पुराने मुहल्ले के बाशिन्दे.

इस पत्र में, जो एक आत्मीय को लिखा गया है, शब्दों की अतिशयता को लक्ष्य किया जाना चाहिए. मुक्तिबोध काम के रोज़मर्रेपन से ऊब कर जीवन को एक ऊँची सतह पर जाने को व्याकुल हैं. लेकिन यह कहने के लिए उन्हें काफी कुछ कहना होता है. प्रकृति उनके सोचने के पूरे पैटर्न को तय करती है. पत्र में जीवन के शिखर की तलाश के साथ आत्मीयता के लिए आकुलता झलकती है. वाक्-संयम से उनका काम नहीं चलेगा.

30 अक्टूबर, 1945 के पत्र में वे जब लिखते हैं कि

“न सिर्फ मैं अपनी राह को खोजता हूँ बल्कि वह भी मुझे खोजती है… .

तो इस पत्र में आत्म-भर्त्सना नहीं है; आत्म-विश्वास है. वह इस वाक्यांश से जाहिर होता है कि राह भी मुझे खोजती है. व्यक्ति को यदि अपना समाज खोजना पड़ता है तो हर समाज भी अपना व्यक्ति खोजता है. और वह कोई अमूर्त इकाई नहीं. किसी एक व्यक्ति का व्यर्थ होना किसी समाज के लिए बड़ी हानि है. व्यक्ति के इस मह्त्वबोध के कारण मुक्तिबोध किसी तुच्छता और व्यर्थता बोध की दलदल में फँसे रहने से बच गए. एक जगह उन्होंने घुटन भरी ज़िन्दगी का जिक्र किया है और लिखा है कि ‘सिनिसिज़्म’ ‘सेंटिमेंटलिज़्म’ से अधिक बुरी चीज़ है और यह भी कि सारे रंजोगम के बावजूद ज़िन्दगी से शिकायत नहीं, तकाजा है.

मुक्तिबोध के पत्रों में बार-बार जग उठने और जाग्रतावस्था में नए स्वप्न देखने का प्रसंग आता है. ये स्वप्न उनके अपने जीवन–यथार्थ को चुनौती देते हैं. यह यथार्थ व्यक्तित्व को छोटा बना देता है, मन का विस्तार नहीं हो पाता. लोगों से कट जाने और दूसरों के जीवन में भावनात्मक भागीदारी न कर पाने की बेचैनी के साथ अपने व्यक्तित्व के पुन:निर्माण की व्यग्रता की जुड़ी हुई है. वे अपने-आप को एक ध्वस्त किले की तरह देखते हैं, जिसकी हरेक दीवार गिर चुकी है, एक-एक ईंट और पत्थर अलग हो गए हैं और उस मलबे से एक नई इमारत की तामीर की भयानक इच्छा उनके मन के भीतर ज़ोर मारती है,

“I am a demolished castle of romantic associations. Every wall, every part of this huge glorious and gloomy structure has been brought down.”

वे लिखते हैं कि उनके भीतर दरअसल आदिम गुफाओं में निवास करने वाला एक शिकारी, बर्बर है जिसे ऐन्द्रिक आनंद और उल्लास प्रिय है.

नेमिचन्द्र जैन के सम्पर्क और मित्रता ने जैसे इस भव्य किले-से व्यक्तित्व में डाइनामाइट लगा कर उसे ध्वस्त कर दिया. इस तरह यह ध्वंस कोई धीमे-धीमे होने वाला क्षरण न था. फिर नए मुक्तिबोध का जन्म कैसा है? इस ध्वस्त किले में नए पेड़-पौधे, नई वनस्पतियाँ उग रही हैं. आवेगपूर्ण आनंद के गोपनीय कक्ष में नंगी जंघाओं और विस्तृत वक्षवाला पीपल उग आया है. अंदर और बाहर, हर तरफ नए वृक्ष उग रहे हैं जिससे ध्वस्त किले में एक वन्यता और सौन्दर्य भर गया है. एक नया मुक्तिबोध या नया व्यक्ति पनप रहा है.

One thought on “ध्वस्त किले में उगती वन्य वनस्पति”

  1. नेमिचन्द्र जैन ही वह पोषक तत्व की महक लेकर आये थे जिससे मुक्तिबोध के काव्य में विभिन्न वनस्पतियों का उगना शुरू होता है और एक विशाल आभा का उदय होता है।

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