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कोरोना महामारी के समय में जब दुनिया त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, ऐसे में मानवता को झकझोर देने वाली तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेज़ी से प्रचारित की जा रही हैं। कहीं भूख से तड़पते लोग, तो कहीं खून से लथपथ पड़ी रेल की पटरियां।

अपने गाँव, अपने शहर में पहुंचने की जद्दोजहद में लोग कई-कई दिनों तक सफर करने को तैयार थे और कर भी रहे थे। केवल इस आस में कि ज़िन्दगी के बचे कुछ क्षण अपने माँ, बाप, बहन, भाई, बंधुओ के साथ गुज़ार सकें।

यदि जीवन में मरना लिखा है, तो क्यों ना हम अपने गाँव पहुंच ही मरें। चेहरे पर पड़ी झुरियां यह बयान करने के लिए काफी हैं कि मज़दूरों के पेट में कई दिनों तक अन्न के दाने तक नहीं गए थे, फिर भी मज़दूर चलता जा रहा था। सम्भवतः केवल इसी आस में ही कि वह एक दिन अपने घर ज़रूर पहुंच जाएगा।

“दुनिया दो रंगी है, एक तरफ रेशम ओढ़े, एक तरफ से नंगी है”

साहिल लुधियावनी की यह पंक्ति ठीक ही कहती हैं अर्थात भारत सरकार के द्वारा अमीरों के लिए हवाई जहाज़ का इंतज़ाम किया जाना जबकि दूसरी तरफ मज़दूरों, किसानों को उनको हालात पर मरने के लिए छोड़ दिया जाना। यह इस बात का प्रमाण है कि दुनिया, जो हमें आंखों से दिखाई जाती है वास्तविक दुनिया उससे भिन्न है।

आप हम इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि कोरोना महामारी से उबरने के लिए अभी तक दुनियाभर की संस्थाएं किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकी हैं। ऐसे में यह भी मुमकिन है कि कोरोना के प्रभाव में आगामी कई वर्षों तक यह दुनिया उबर ना सके।

इस बीच बहुत सी ऐसी घटनाएं घटीं जिनसे मानवता ही नहीं भाजपा शासित राजनैतिक दल की सरकार पर प्रश्न चिन्ह खड़े हुए। कुछ मज़दूरों में, गरीबों में, अभी भी यह आस बची हुई है कि सरकार उनको उनके गाँव पहुंचा देगी, लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न है।

सरकार के निराशाजनक रवैये ने मज़दूरों, गरीबों, किसानों, दलितों के विश्वास को तोड़ने का ही कार्य किया है। जो सरकार को शक के दायरे में खींच लेते हैं।

कोरोना की भयावहता के कारण आजीविका के संकट की मार झेलते करोड़ो मज़दूर

कोरोना महामारी से बचाव के लिए अन्य देशों की भांति भारत में भी देह से दूरी( सोशल डिस्टेंसिंग) की नीति को अपनाया गया, किन्तु अन्य देशो की भांति इस पर विचार नहीं किया गया। या यूं कहा जाए कि भारत में देह से दूरी  की नीति को लागू, तो कर दिया गया किन्तु देश की परिस्थितियों का ख्याल नहीं रखा गया, क्योंकि किसी भी नीतियों पर देश, काल, परिस्थिति का खासा प्रभाव पड़ता है।

यह नीति के निर्माण से लेकर क्रियान्वयन को बखूबी प्रभावित करता है। ऐसे में जब नीति निर्माण में खामियां रही हों अथवा किसी प्रकार की नीति निर्धारित ना हो पाई हो अथवा नीति का सही रूप से  क्रियान्वयन ना हो पाया हो, तो उसका बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है। 

सही रणनीति का चयन ना किया जाने का मतलब है कि नीतियों को असफलता की दिशा की ओर मोड़ देना। जिसको हम कुशल रणनीति के अभाव के रूप में महसूस करते हैं। ऐसी ही कुछ घटनाएं हाल ही में देखने को मिलीं जब कोरोना वायरस के रोकथाम के नाम पर लोगों को जहां-तहां लॉक करके घरों, कारखानों में रख दिया गया। कई दिनों के लॉकडाउन की वजह से भारतीय मज़दूरो की जमा पूंजी, तो खत्म हो ही गई इसके अलावा इसके कई नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिले।

आज मज़दूर दाने-दाने को मोहताज़ है। भारत सरकार की एक गलत नीति का खामियाज़ा भारत के मज़बूर, किसान, गरीब वर्ग के लोगों को भुगतना पड़ रहा है। जिस से देशवासी दो भागों में बंटकर रह गए। आज एक तरफ खिलखिलाते लोग हैं, जिनके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं। दूसरी तरफ भूख से तड़पडाते लोग जिनके पास ना पैसे हैं, ना रहने के लिए घर, ऐसे में बेबस मज़दूर जाएं तो जाएं कहां? 

देश की सरकार का आम जनमानस के प्रति निराशाजनक रवैया

भारत सरकार के द्वारा एक नैतिक अपील ज़रूर की गई थी कि इस कोरोना महामारी के समय में मकान मालिक मकान किरायेदार का एक महीने का किराया माफ कर दें, लेकिन कुछ दिनों बाद ही सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने इसे पलटने में देरी नहीं की। किराया माफ करने की दलील को खारिज कर दिया गया। सभी किरायेदारों को अपने रूम का किराया देने के लिए कह दिया गया।

अंतराष्ट्रीय लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन जो एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों एवं श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम बनाने वाली संस्था हैं, उनके मुताबिक दुनियाभर में असंगठित क्षेत्रो में काम करने वाले लोगों की संख्या दो अरब है जिसमें 19.5 करोड़ मज़दूरों की पूर्णकालीन नौकरी जाने की आशंका है। जो कुल असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरो का 6.7% हैl

वहीं केवल भारत में कुल असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या 40 करोड़ है। भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 22 मार्च से 5 अप्रैल के बीच 22% की शहरी बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी हुई है।

आखिर सरकार कोरोना से निपटने के लिए क्या कर रही है?

ऐसे समय में जब चारों तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई है, तो सरकार क्या कर रही है? अभी हाल ही में देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए 38 में से 35 श्रम कानून निलम्बित कर दिए गए हैं। जो सरकार के रवैये को भलीभांति स्पष्ट करते हैं। 

इससे मज़दूर मात्र बंधुवा मज़दूर बनकर रह गए हैं। लॉकडाउन के  बीच में ही एक ऐसी भी सूचना आई थी कि कर्नाटक की सरकार ने बिल्डरों के कहने मात्र पर मज़दूरों के लिए चलाई जाने वाली स्पेशल ट्रेनों को रद्द कर दिया था, क्योंकि इनको बंधुआ मज़दूर की तलाश थी।

क्या सरकार को अप्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा ज्ञात नहीं?

ऐसे में यह प्रश्न यह उठना स्वाभाविक है कि जब देश में मज़दूरों की दुर्दशा हो रही थी, तो देश के प्रधानसेवक कहे जाने वाले नेतागण कहां थे? क्या उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि देश में कितने मज़दूर रेल की पटरियों के नीचे आकर मर रहे थे। सवाल यह है कि सरकार के द्वारा इनके लिए क्या नीति बनी थी।

 आज मज़दूर, जो इस परिस्थिति का सामना कर रहे हैं, उसके लिए जिम्मेदार कौन है?

इस समय जब जनता को सरकार की ज़रूरत है, तो उनकी चुनी हुई सरकार दूर-दूर तक उनके साथ खड़ी नहीं दिखाई दे रही है। जो शासन-प्रशासन की अदूरदर्शिता को प्रतिलक्षित करती है। जैसा कि हम सभी इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि राज्य का यह दायित्व है कि जनता की मूलभूत आवश्कताओं की पूर्ति हेतु संसाधन उपलब्ध कराएं।

आज पूरा देश दो खेमों में विभाजित होता दिखाई दे रहा है। इस विषय में मार्क्स ने ठीक ही कहा था कि समाज में दो वर्ग हैं “हैब और हैब नॉट” एक के पास सब कुछ है और एक के पास अपना कहने को कुछ है ही नहीं। जब पूरा देश कोरोना की लपटों में जल रहा है, तो इसके लिए नीतियां क्यों नहीं तैयार की गईं?

आज हम जिस परिस्थिति का सामना कर रहे हैं इसके लिए ज़िम्मेदार कौन हैं? क्या इससे पहले ट्रेन नहीं चलाई जा सकती थीं? क्या सरकारी खजाने खाली पड़ गए हैं, जो इस विकट परिस्थिति में भी सरकार इन मज़दूरों के लिए आगे नहीं आ रही है।

इसके अलावा ज़हन में और भी कई सवाल उठ रहे हैं जैसे आखिर किस दिन और रात के लिए जनता ने पीएम केयर में पैसे दान किया। जनता के द्वारा पीएम केयर में दान किए गए पैसे आखिर कहां गए?

अजीज प्रेमजी यूनिवर्सिटी की कोविड- 19 के सर्वेक्षण के अनुसार    

अजीम जी प्रेमजी यूनिवर्सिटी कोविड-19 के  सर्वेक्षण तारीख 12 मई 2020 दिन  मंगलवार के प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक कोरोना वायरस के चलते रोज़गार, आजीविका पर पड़ने वाले इसके गम्भीर असर तथा इसके राहत के लिए सरकार द्वारा चलाई गईं योजनाओं का निरीक्षण किया गया। जो देश के 12 राज्यों में तकरीबन 4,000 कर्मचारियों के विस्तृत सर्वेक्षण पर आधारित है, इस सर्वेक्षण में सिविल सोसायटी संगठनों का भी सहयोग लिया गया है।

इस सर्वेक्षण के मुताबिक कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए भारत सरकार के द्वारा 24 मार्च से देश में लगी तालाबंदी से अर्थव्यवस्था और विशेष रूप से कमज़ोर, अनौपचारिक संगठन के प्रवासी मज़दूरों और उनके परिवार पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का गहन अध्ययन किया गया है।

जिसके आधार पर उन्होंने अपनी रिपोर्ट तैयार की है। यह रिपोर्ट मुख्यतः उत्तरप्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे राज्यों के मज़दूरों व उनके परिवार के अध्ययन पर आधारित है। जो रोज़गार और कमाई के कार्य का विश्लेषण करती है। इस रिपोर्ट के कुछ अंश निम्नवत हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार दो तिहाई लगभग 67% लोगों ने अपने रोज़गार खोए हैं, जिनमें अधिकतर शहरी क्षेत्रों के लोग हैं। शहरी क्षेत्रों की अगर बात की जाए, तो 10 में से आठ तकरीबन 80 परसेंट और ग्रामीण क्षेत्र में 10 में से छह तकरीबन 57 परसेंट लोगों ने अपने रोज़गार खो दिए हैं।

स्वरोज़गार करने वाले जिनके पास अपने खुद के रोज़गार थे। उनकी साप्ताहिक आय ₹2244 से घटकर ₹218 हो चुकी है। जिसमें तकरीबन 90% की गिरावट आई है। आकस्मिक श्रमिक, जिनको आकस्मिक रोज़गार मिले हैं उनकी आवश्यक साप्ताहिक आय ₹940 थी, जो अब  घटकर 500₹ हो चुकी है, जिसमें तकरीबन 45% गिरावट आई है।

51% वेतन भोगियों को या तो वेतन कम मिले हैं या वेतन ही नहीं मिले हैं। लगभग 49% परिवारों ने यह बताया कि उनके पास 1 सप्ताह के लिए भी आवश्यक वस्तुएं खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं।

संक्षेप में यदि कहा जाए, तो तालाबंदी से आजीविका पर, अर्थव्यवस्था व श्रम बाज़ार पर इसका काफी बुरा असर देखने को मिला है। तत्कालीन समय की राहत परियोजनाएं गंभीर स्थितियों को देखते हुए अपर्याप्त हैं। जिसके लिए कहीं ना कहीं भारत सरकार पूर्णतया ज़िम्मेदार है।

 

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