नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई का ब्रिटिश फैशन मैगजीन वोग के जुलाई अंक में अपने इंटरव्यू में विवाह संस्था पर कुछ सवाल उठाए जाना और इस पर चारों ओर चर्चा का माहौल बना हुआ है। चर्चा का माहौल इसलिए बन गया है, क्योंकि लोगों को लग रहा है कि मलाला ने विवाह संस्था के अस्तित्व को चुनौती देने का काम किया है।
इस तरह की चर्चा का विषय मलाला पहले भी बनती रही हैं लेकिन इस बार उन्होंने अपने इंटरव्यू में कहा कि मुझे समझ में यह बात नहीं आती कि लोग शादी क्यों करते हैं? अगर आपको जीवनसाथी चाहिए, तो आप शादी के कागज़ों पर दस्खत क्यों करते हैं? यह दो लोगों के मध्य एक पार्टनरशिप क्यों नहीं हो सकती है?
मलाला असल में यही पूछना चाह रही हैं कि विवाह संस्था में किसी स्त्री ने नहीं चाहा होगा कि वह किसी एक पुरुष के साथ रहे पर उसकी इच्छा गुलामी का कारण बन जाए। विवाह संस्था, कभी भी स्त्री-पुरुष के बीच तालमेल / एक-दूसरे के पूरक या सहयोगी के रूप में क्यों नहीं बन पा रही है।
मलाला का सवाल यह है कि लोग शादी क्यों करते हैं? इसका मतलब विवाह संस्था को चुनौती देना नहीं है, बल्कि विवाह संस्था में हर महिला के लिए विश्वास और भरोसे की मांग कायम करने की इच्छा का है। महिलाओं के जीवन को मर्यादा की बेड़ियों में बांधने का, तो कतई नहीं है।
आज के समाज में विवाह पूर्व संबंध, विवाहेत्तर सम्बंध, सहजीवन, समलैंगिकता, तलाक और एकाकी-जीवन जीते स्त्री-पुरुष दोनों ही वर्गों में बड़ी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। नि:संदेह व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन दिनों दिन कठिन और पेचीदा होता चला जा रहा है। इसलिए मलाला का बयान लोग शादी क्यों करते हैं? विवाह संस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है।
असल में मलाला आज की सैकड़ों महिलाओं के उस मौन को स्वर देना चाह रही हैं, जिनके आस-पास की दुनिया रोज़ बदल रही है। परंतु, उनके पास चाह कर भी इसका कोई विकल्प नहीं हैं। ये महिलाएं आज कई क्षेत्रों में पहुंचने वाली पहली महिला हैं या उनकी प्रेरक दास्तान कई महिलाओं के लिए मिसाल बन गई है, पर उनके पास भी कोई नया विकल्प नहीं है।
भले ही उनके अपने कैरियर इत्यादि के मामलों में उनकी मर्जी चल गई पर शादी और उसके बाद के जीवन से जुड़े फैसलों को लेकर, आज भी वे लक्ष्मणरेखा के अंदर ही रहती हैं। वो यह भी मानती हैं कि उनकी आज़ादी की सीमाएं शादी के मामले पर आकर खत्म हो गई हैं।
एक समाज होने के नाते पर इस मुद्दे पर समाज को ज़रूर सोचना चाहिए कि विवाह जैसी संस्था, जो समाज को गतिशील बनाए रखने के लिए अत्यंत ज़रूरी है। वह आत्मनिर्भर और आज़ाद ख्याल वाली महिलाओं के बारे में ही नहीं, वरन विवाह करने वाली हर महिला के लिए थोड़ा उदार बनकर सोचे।
मलाला बस यह कहना चाह रही हैं कि महिलाओं को अपने हिसाब से चलने दीजिए, उन्हें क्या पहनना है? क्या करना है? क्या बनना है? अपनी लाइफ कैसे गुजारनी है? उसका फैसला किसी पुरुष को नहीं वरन उसको स्वयं को करने दीजिए।
उसके जीवन में जीवनसाथी की प्रासंगिकता महज़ एक पाटर्नर के रूप में ही रहनी चाहिए और उसके भाग्यनिमार्ता की तरह, तो कतई नहीं।
मलाला के सवाल लोग शादी क्यों करते है? पर सोशल मीडिया और समाज में भले ही लोगों की कई तरह की राय सामने आ रही हों, लेकिन इतना, तो तय है कि उन्होंने विवाह संस्था में महिलाओं की अस्मिता के सवाल को नए सिरे से पुर्नपरिभाषित करने का अनूठा काम किया है।
सोशल मीडिया और समाज भले ही उनके सवाल से सहमत-असहमत हों, परंतु आज नहीं, तो कल सोशल मीडिया और समाज को एक निर्णायक जवाब तक पहुंचना ही होगा, क्योंकि विवाह संस्था को ठुकराना या विवाह संस्था में महिला के सवालों को ठुकराना समाज की गतिशीलता पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देगा?
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