This post is a part of JaatiNahiAdhikaar, a campaign by Youth Ki Awaaz with National Campaign on Dalit Human Rights & Safai Karamchari Andolan, to demand implementation of scholarships in higher education for SC/ST students, and to end the practice of manual scavenging. Click here to find out more.

हमारे समाज में कई तरह के नियम कानून हैं, जिससे यह तय होता कि व्यक्ति कितना चरित्रवान है? यदि कोई व्यक्ति इन कानूनों का उल्लंघन करता है, तो उसके आधार पर उसके चरित्र में गिरावट होती है। हमारे समाज में कई प्रकार के ऐसे सामाजिक नियम हैं। यदि हम इन नियमों को वैज्ञानिक और मानविक नज़रिए से देखें, तो हमारे समाज के घूंघट के अंदर छिपी सच्चाई को देख पाएंगे और उसके चहरे के हाव भाव को भी समझ जाएंगे।

पहले हमें उस प्रणाली को समझना चाहिए जिसके आधार पर ये नियम बनते हैं। मानव के जिन विचारों और कार्य से मानव समाज का विकास बाधित होता है, उन पर रोक लगाने के लिए कुछ नियम कानून बनाए जाते हैं। जो व्यक्ति नियम कानूनों को तोड़ता है, उन पर कड़ी कार्रवाई होती है। दूसरी ओर समाज में ऐसे नियम हैं, जो इन बातों के पूर्णत: प्रतिकूल है।

धर्म और जाति पर एक दार्शनिक नज़र

आज से लगभग 150 वर्ष पहले कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म एक अफीम है। धर्म मानव की सोचने समझने (चिंतन) की क्षमता को कमज़ोर करता है। धर्म के कुछ फलक देखने पर पता चलता है कि जैसा कहा जाता है वैसी कोई वास्तविकता नहीं है।

भगवान, अल्लाह, ईशु, गॉड या आलौकिक शक्ति है जो पूरे ब्रह्मांड को संचालित करता है। अच्छा हो या बुरा सब उन्हीं की इच्छा से होती है। उनके इच्छा विरुद्ध एक पत्ता भी नहीं हिलता। फिर एक बात ज़रूर जोड़ी जाती है कि भगवान सभी के हैं। अल्लाह सभी के हैं, ईशु अपने भक्तों में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करते। चाहे वह गरीब हो या अमीर, ऊंच हो या नीच, सब उनकी निगाहों में एक समान हैं।

अब आप पूछिएगा कि मैं तो बड़ी ईमानदारी, बड़ी मेहनत से काम करता हूं फिर भी मैं गरीब क्यों हूं? मेरे हालात क्यों खराब हैं?

जवाब रटा रटाया कि तुमने पिछले जन्म में बुरे काम किए होंगे जिसके कारण तुम इस जन्म में गरीब हो या मुश्किलों के दौर से गुज़र रहे हो। अगर तुम इस जन्म में जैसा भगवान चाहते हैं वैसा करो, तो तुम्हारा अगला जन्म सुखद होगा। इसी विचार को लेकर हमारे समाज के दबे-कुचले, गरीब (जिन्हें शूद्र भी कहा जाता है) लोग यह सोचकर हज़ारों साल से मेहनत करते रहे कि उनका अगला जन्म तो सुखद होगा।

मानव विरोधी जंजीरों को तोड़कर बढ़ना ज़रूरी

मगर भगवान क्या चाहते हैं यह कौन बताएगा? वो किसको व्हाट्सएप्प नंबर पर भक्तों का सिलेबस भेजते हैं ये पता कैसे चलेगा? ऐसा तो नहीं कि मैसेज आता ही नहीं है और कोई खुद तो मैसेज लिखकर आगे फॉरवर्ड तो नहीं कर रहा? जिसको आज कल फेक न्यूज़ कहा जा रहा है, मतलब कि यह खबर झूठी है।

शुरुआत से ही तथाकथित नीच कहे जाने वाले वर्ग को धर्म या जाति के नाम पर दबाने के लिए ऊंची जाति (मुख्यत: ब्राह्मण) के लोगों द्वारा कई कठोर हथकंडे अपनाये गए हैं। जिससे उनके आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और वैचारिक विकास को रोका जा सके।

ऊंची जाति के महापुरुष, महात्मा, ही बताते हैं कि प्रभु की क्या इच्छा है? जाहिर है यदि केवल कुछ लोग मिलकर कानून बनाएंगे तो वे अपने आप को केंद्र में रखकर ही कानूनों का गठन करेंगे। अगर किसी व्यक्ति ने प्रभु की इच्छा नहीं मानी तो प्रभु दंड नहीं देते थे, बल्कि यह ऊंची जाति के लोग बिना किसी जनसुनवाई के उन्हें मौत के घाट उतार देते थे।

हम उन बातों की गहराई में नहीं जाते हैं कि कैसे नियम थे या उनके क्या परिणाम थे? यह आप कई किताबों को पढ़कर या अपने आस-पास की परिस्थितियों को समझकर जान सकते हैं।

जो इन गैर-ज़रूरी व मानव विरोधी जंजीरों को तोड़कर आगे बढ़ पाये उन्होंने जाना कि यह प्रतिबंध कोई परमात्मा की देन नहीं है, बल्कि परमात्मा जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। कई ऐसे लोग हुए जिन्होंने परमात्मा को नकारते हुए धर्म परिवर्तन किया।

फिर इन्होंने इन झूठे धार्मिक नियम-कानूनों का सच लोगों के सामने रखा, जिसके बाद बड़े स्तर पर लोगों ने मिलकर इसका विरोध किया।

वर्ण आधारित कामों में फंसे लोग

सीवर सफाई के कार्य में लगे मज़दूर दलित समाज से आते हैं जिनके हालात में आज तक कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है।

आप अंदाज़ा लगाइए कि आप अपने पखाना को साफ करने में कितना घिन्न करते हैं या बच्चे के मलमूत्र को देखते आपको कितना गंदा लगता है लेकिन सीवर सफाई करता यह समुदाय पूरे मोहल्ले का पखाना साफ करते हैं।

जाति व्यवस्था का निर्माण कार्य के आधार पर हुआ था मतलब जो मलीन समझे जाने वाले काम थे उन्हें शूद्र वर्ण के अंदर एक जाति के नाम से शामिल किया गया। दलित समाज आज भी इस जानलेवा शोषण से मुक्त नहीं हो पाया है। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े होने के कारण दलित समाज आगे नहीं बढ़ पा रहा है। संविधान की सहायता दलित समाज से दूर है जिसके कारण यह अब भी जातीय शोषण के शिकार हैं।

नाम बदलने से हालात नहीं बदलते

यह वही धार्मिक विरोध है जिनके बारे में हम किताबों में पढ़ते हैं और जिसके कारण हमारे धर्म में कई बड़े परिवर्तन भी हुए हैं। देखते ही देखते इन आंदोलनों के कारण धार्मिक नियमों में चाहे वह वर्ण व्यवस्था हो, जाति व्यवस्था हो या धर्म के आधार पर पुरुष स्त्री का भेदभाव, इनसब में एक दरार पड़ गई। मगर यह कुकर की सिटी की तरह काम कर रहा है, क्योंकि यह सारी व्यवस्था आज भी बनी हुई है। दरार इतना कम है कि वह इसे टूटने पर मजबूर नहीं करता।

अब तो एक नई पुरानी व्यवस्था से शक्तिशाली व्यवस्था आ गई है जिसमें पुरानी व्यवस्था के नियमों को नए रैपर में रखकर दिया जा रहा है। कहने का मतलब कि बस कपड़े बदले हैं, चरित्र नहीं। जितने बदलाव हुए हैं उनसे हम पूर्णरूप से स्वतंत्र नहीं हो पाए हैं। आज बेशक हम अपना मालिक चुन सकते हैं लेकिन हम हैं तो नौकर ही ना? ऐसा क्यों लगता है कि फिर हमें कोई झूठ के आधार पर अपना गुलाम बनाए बैठा है?

Youth Ki Awaaz के बेहतरीन लेख हर हफ्ते ईमेल के ज़रिए पाने के लिए रजिस्टर करें

You must be logged in to comment.