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बसंत ऋतू , ऋतुओं में सबसे सुंदर होती है और यही वो रुत है, जो हमें प्रेम भरे रंगों से सराबोर कर देती है। जहां एक ओर गुलमोहर, पलाश, बोगनबेलिया के रूप में   रंग बनकर बिखर रहे होते हैं, वहीं दूसरी ओर आम पर मौर बौरा रहा होता है।

होली भेदभाव मिटाने का त्यौहार

शायद इन्हीं रंगों का उत्सव है होली। भगवान कृष्ण भी कहते हैं, “मैं ऋतुओं में बसंत हूं।” मतलब सबसे सुंदर ऋतु बसंत को कहा गया है। वहीं, कवियों ने अपनी रचनाओं में होली को जितना महत्व दिया है, उतना शायद ही किसी तीज-त्यौहार को मिला होगा।

 

हम मानते हैं कि होली एक ऐसा त्यौहार है जो सबको सराबोर कर देता है। यूं भी ये रंग छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच भेदभाव नहीं जानते, अगर जानते होते तब बरसाने की हर देहरी को अबीर अपने रंग में ना रंग पाता। हर शहर, हर गांव या कहें प्रदेश में होली की अपनी ही रीत होती है लेकिन अब ये रीत बड़े-छोटों की मान-मर्यादा से ज़्यादा फूहड़ता की निशानी हो गई है।

लाईन क्रॉस करती एक टैगलाइन

हमने होली को शुरुआत से ही एक टैगलाइन के साथ जीया है और वो है ‘बुरा ना मानो होली है’ और इस टैगलाइन की आड़ में अभद्रता, अश्लीलता सबको जगह मिलती गई है। 

यहां मुद्दा किसी को कटघरे में खड़ा करना नहीं है लेकिन वो कुछ लोग जो दबी-छुपी भावनाओं के साथ घर की महिलाओं को बुरी नज़र से देखा करते हैं।  फिर चाहे वो घर की भाभीयां रही हों या सलियां कई दफ़े रिश्ते नाते की बहन-भतीजियां (niece) और कई दफ़े महिला मित्र भी।

तब होली के जश्न में ऐसे कुछ लोगों के पास यही टैगलाइन और अधिकार होता है कि वो किसी पर बेझिझक रंग डाल सकें, उनसे अभद्रता कर सकें। 

क्या रंग का नशा अभद्र बनाता है?

अभद्रता! जिसे हम सभ्य भाषा में बेड टच कहना सीख गए हैं और इस बेड टच से लड़कियों का दो-चार होना कुछ नया नहीं है लेकिन सोच कर देखिए! यदि इस सो कोल्ड समाज में एक लड़की को बहु (dauhter in law) के तौर पर अपने ही घर में यह सब  झेलना पड़े, वह भी सबके सामने, तब वो किसी को क्या कह पाएगी?

मुझे एक घटना याद आती है। होली के आस-पास मेरी एक दोस्त के घर कोई प्रोग्राम था। शायद किसी की एनिवर्सरी पार्टी।  यानी होली पर मैं  उसके ही शहर यानी होम टाउन में थी।  जैसा कि होली आस-पास थी और सभी तरह के रिश्तेदार घर में थे, तब उनके घर में भी होली के जश्न की तैयारी की गई।

सोचिए एक ऐसा घर जहां पर्दा प्रथा और दबंगई दोनों का परस्पर मेल था।

जब सबके सामने एक लड़की को गोद में उठा लिया

मतलब जहां महिलाएं बोल नहीं सकतीं थीं और पुरुषों को चुप किया नहीं जा सकता था। मैंने देखा होली की धूम थी। भाई-भाभी, जीजा-साली या कहूं जितने भी रिश्तेदार थे सब, होली के जश्न में मग्न थे और कुछेक ने भांग भी पी रखी थी।

मैं चुपचाप एक चेयर पर बैठकर इस जश्न में शामिल थी और हंसते, गाते, झूमते रंग लगाते सबको देख रही थी।

कुछ लड़कियां नाच रही थीं बेशक घर की बहू-बेटियां ही होंगी। तभी अचानक एक अधेड़ उम्र के शख्स ने एक नई नवेली दुल्हन सरीखी लड़की को बहुत ही बदतमीज़ी से पकड़ा और उसके गालों पर रंग मल दिया। वो लड़की आगे कुछ समझ पाती इससे पहले ही वो शख्स उस लड़की को गोद में उठाकर नाचने लगा।

 

सब कहते रहे “नई बहु को नीचे उतारिए’

वो लड़की खुद को उसकी गिरफ्त से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी और आस-पास जितने भी  लोग थे, वो बड़े संकोची भाव से कह रहे थे “नई बहू को नीचे उतारिए।” जीजाजी “नई बहू को नीचे उतारिए।”

मैं ये सब देख स्तब्ध थी। पहला तो मैंने हमारे घरों में ना ही इतना पर्दा देखा था और ना ही ये  फूहड़ता।

गाना मुझे याद नहीं लेकिन वो शख्स उस लड़की को लगभग 10 से 15 मिनिट तक गोद में उठाए ही नाचता रहा। वहां ऐसा कोई भी नहीं था जो उस शख्स का हाथ पकड़कर उसमें दो थप्पड़ जड़ पाता या कह पाता ये क्या बदतमीज़ी है?

बस सब एक असहज और अज़ीब से भाव से एक दूसरे को देख रहे थे और ये जताना चाह रहे थे कि वहां सब कुछ सहज है।

क्या इतना सहज है बुरा ना मानना ?

फिर धीरे से संगीत भी बंद हो गया और नाच-गाना भी।  बाद में सब कानाफूसी करते रहे और कुछ लोगों ने माहौल को सहज़ करते हुए कहा “थोड़ी चढ़ गई होगी।” वैसे तो वो बहुत अच्छे आदमी हैं। पहले  हमने कभी ऐसा करते नहीं देखा ।” 

वहीं किसी ने यह भी कहा “क्या ज़रूरत थी इन लड़कियों को यहां इकट्ठा करने की। देखो हो गया ना तमाशा।” और एक महिला ने बड़े ही सभ्य ढंग से मुस्कुरा कर कहा   ‘बुरा ना मानो बिटिया होली है।’

हरकत उस आदमी ने की थी लेकिन शर्मिंदा थी सिर्फ वो लड़की। वो किसी से नज़र नहीं मिला पा रही थी। शायद खुद से ज़्यादा वो उन अपनों पर शर्मिंदा रही होगी, जिनकी इतनी हिम्मत नहीं हुई की उस शख्स को रोक पाए। फिर वो लड़की मुझे कहीं नज़र नहीं आई।

ये घटना मुझे यूंही याद आ गई मगर देखिए ना हमारा सो कॉल्ड समाज जहां एक तरफ लड़की से ही अपनी इज़्ज़त आंकता है।  मतलब हम एक समाज के तौर पर ऐसा कहने से नहीं चूकते कि लड़कियां घर की इज्जत हैं लेकिन वहां क्या इतना सहज़ है, किसी की इज़्ज़त को गोद में लेकर नाचना?

रंग और भंग के बहाने क्या किसी को छूना सहज है

और सोचिये जब परिचितों के बीच कोई कुछ नहीं कह पाया, तब कहीं अपरिचित लोगों के बीच क्या कुछ घटित किया जा सकता होगा। लड़कियों को भीड़, बस, ट्रेन और अंधेरे की आड़ में छू लेना, उन्हें असहज कर देना बहुत आसान है फिर होली तो त्यौहार ही छूने, रंग लगाने का है।

पहले तो ऐसी किसी घटना पर, वो बोलने की हिम्मत जुटा नहीं पाती और जो बोलना जानती हैं, वो जब तक समझती हैं कि कोई उनसे अभद्रता कर रहा है तब तक वो शख्स भीड़, अंधेरे, बस और ट्रेन की तरह ही घर के रिश्ते-नातेदारों में कहीं खो चुका होता है।

होली के नाम पर रंग लगाने के बहाने किसी को, कहीं भी छू लेना सहज़ है और घर की चारदीवारी में तो और भी आसान। 

जहां सभ्य समाज औरतों के साथ नाचने से नहीं चूकता 

क्योंकि वहां कोई आपत्ति दर्ज करने नहीं आएगा। देवर भाभी, जीजा साली का ही तो हक है ये है ना! लेकिन इन रंगों की आड़ में बहुत कुछ घटता जाता है जिसे कोई देखना नहीं चाहता और ये सब होली की वजह से नहीं बल्कि हमारे समाज ने जो लड़कियों को चुप रहने की अभिनय कौशल सिखाया जाता है उसकी वज़ह से सहज हो जाता है।

मैं समझती हूं ऐसी किसी भी घटना पर हमारी पहली प्रतिक्रिया उस लड़की पर ही होती है ना कि अभद्रता करने वाले पर।

ये लिखते वक्त ना चाहते हुए भी मुझे कुछ याद आ गया। मैं मप्र की रहने वाली हूं और उसमें कुछ क्षेत्र बुंदेलखंड भी है, जहां होली के आस-पास मेले लगते हैं। जिनमें नाचने के लिए उन महिलाओं (बेड़नियों) को बुलाया जाता है जो इस पेशे में होती हैं, जिन्हें हमारा समाज एक तरफ गाली कहता है।  वहीं दूसरी तरफ उनके साथ नाचना-गाना एक परंपरा भी।  एक से बढ़कर एक सभ्य पुरुष वहां जाते हैं। 

जब तक एक लड़की को दोयम दर्जे पर रखा जाएगा और सभ्य लोगों से भरे इस असभ्य समाज को ये नहीं सिखाया जाएगा की उनके साथ कैसे एक स्वस्थ्य मानसिकता के साथ बर्ताब करना है तब तक ऐसी घटनाएं घटती रहेंगी और हम कभी पात्र तो कभी मूक दर्शक बनकर सब सहते रहेंगे।

 

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