नए कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन धीरे-धीरे ज़ोर पकड़ता जा रहा है। ना सिर्फ पंजाब से बल्कि देश के अलग-अलग राज्यों से किसान इस आंदोलन का हिस्सा बनने आ रहे हैं। वैश्विक महामारी कोरोना के प्रकोप और दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड के बीच भी किसानों की ज्वाला ठंडी होती दिखाई नज़र नहीं आ रही है।
वहीं, किसान आंदोलन को बदनाम करने की साज़िशों में भी खूब इज़ाफा हो रहा है। कुछ लोग कह रहें हैं कि ये सब अलगाववादी हैं तो कुछ का कहना है यह खालिस्तानी हैं। भाजपा और भाजपा समर्थित जो देश का परिवार है, उसकी पूरी कोशिश यही है कि किसी तरह किसान आंदोलन को बदनाम किया जाए।
गृहमंत्री जी कह रहे हैं कि ये सभी उत्पाती व्यवहार के लोग हैं। वहीं आईटी सेल के प्रमुख इनको आतंकवादी और काँग्रेस का एजेंडा बता रहे हैं। यह एक बड़ा सवाल है कि सत्तारूढ़ हमेशा से जो भी जनांदोलन हैं, उनको रोकना क्यों चाहते हैं?
भाजपा सरकार सभी जनांदोलन के विरोध में क्यों आ जाती है? जनांदोलनों का इतना डर किस लिए? क्यों देश की केंद्रीय सरकार क्यों? इतनी सारी शक्तियां होने बावजूद लोगो के हुज़ूम से इतना डर?
किसान आंदोलन को एनआरसी और सीएए से जोड़ा जा रहा है। आंदोलनकारियों को आतंकवादी कहा जाने लगा है। कहा जाने लगा है कि इनके लिए बिरयानी स्पॉन्सर्स हैं। इनको हर दिन के पैसे दिए जा रहे हैं।
मीडिया का एक पार्ट इनको असली किसान ही नहीं मान रहा। मीडिया यह दिखाने कि कोशिश कर रहा है कि यह अंग्रेज़ी बोलते हैं और किसानों को तो अंग्रेजी नहीं आती है। यह अपने आप में एक हास्यास्पद बात लगती है। किसानों को राजनीति से प्रेरित बताया जा रहा है।
इस किसान प्रोटेस्ट के महत्वपूर्ण दो आयाम हैं। जिनमें यह सब जनतांत्रिक मूल्यों पर सीधे तौर पर आघात है। इसकी शुरूआत यहां से होती है कि आप किसानों के लिए कुछ कानून लाना चाहते हैं, लेकिन किसानों के साथ इसके लिए एक बार भी पहले कोई चर्चा नहीं की गई।
फिर इसके बाद राज्यसभा में यह बिल जाता है, सरकार के वोटों के पक्ष की संख्या कम हैं, लेकिन इस बिल को वॉइस वोट के साथ इसको पास कर दिया जाता है। यानी कोई भी डिवीज़न ऑफ वोट नहीं किया जाता।
सबसे बड़ी बात यह समझ में नहीं आती है कि देश के किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री अगर राष्ट्रीय अध्यक्ष से मुलाकात करने के लिए जाता है, तो उसको मिलने से मना कर दिया जाता है। ऐसा क्यों, किस लिए?
यह तो बहुत निम्न या हम कहें ओछी बात है की किसानों को इस तरह बात करने से रोक दिया जाए। राष्ट्रपति से किसान मिलना चाहते हैं, फिर भी उनको मिलने से रोका जा रहा है, ऐसा क्यों? आप तो देश के नागरिकों के लिए काम करते हैं, फिर ये डर और भय किस बात का है?
वहीं केंद्रीय गृह मंत्री मंडियों और बाज़ारो की तरह मोल-भाव पर उतर आए हैं, उनका किसानों से कहना है कि अपने प्रोटेस्ट खत्म करो इसके बाद आपस में बात होगी। लेकिन, क्या ऐसा कर देने से किसानों की मांगें पूरी हो जाएंगी? क्यों हमारी सरकारें तानाशाही पर उतर आईं है? जो हल चलाना जानता है, वो क्या इतना खतरनाक है कि उसकी बात बगैर किसी शर्त के सुनी ही ना जा सके?
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