नीतीश बनाम तेजस्वी, अंकगणित और गठबंधन में नीतीश के पक्ष में मुकाबला क्यों दिख रहा ?

नीतीश कुमार के नाम पर अमित शाह ने एक बार फिर मुहर लगा दी, तेजस्वी राजद-कांग्रेस की तरफ़ से चुनौती देने वाले उम्मीदवार होंगे यह भी साफ है.

नीतीश बनाम तेजस्वी, अंकगणित और गठबंधन में नीतीश के पक्ष में मुकाबला क्यों दिख रहा ?

नीतीश कुमार के साथ तेजस्वी यादव (फाइल फोटो).

पटना:

बिहार में अगला विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार वर्सेज़ तेजस्वी यादव होगा. नीतीश कुमार NDA के नेता होंगे और मुख्यमंत्री पद का चेहरा. इस बात पर रविवार को केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने एक बार फिर मुहर लगा दी और तेजस्वी भी राजद कांग्रेस की तरफ़ से चुनौती देने वाले उम्मीदवार होंगे यह भी कमोबेश साफ़ है.

हालांकि तेजस्वी को क्या छोटे छोटे दल जैसे उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश की पार्टियों का भी समर्थन मिलेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तेजस्वी विधानसभा चुनाव में उनकी ज़रूरत समझते हैं या नहीं. अभी तक कि उनके रूप से लगता है कि वे बहुत  ज़्यादा इन पार्टियों को भाव देने से बच रहे हैं. लेकिन नीतीश कुमार शायद बिहार के चुनावी इतिहास में पहले व्यक्ति होंगे जिन्होंने 2010 में लालू यादव से और अब 2020 में राबड़ी-लालू के पुत्र तेजस्वी यादव से मुक़ाबला करेंगे. परिणाम क्या होगा, राजद के नेताओं के अनुसार आज भी उनके पास आधारभूत वोट बैंक मुस्लिम यादव के अलावा बहुत कुछ नहीं है और पहली बार नीतीश के पास भाजपा के साथ तालमेल के कारण अगड़ी जातियों का भूत अपनी पार्टी का आधारभूत ग़ैर यादव पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के अलावा महादलित वोट बैंक और पहली बार विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के NDA में रहने के कारण पासवान वोटरों का साथ है.

लेकिन अगर आप ये जानना चाहते हैं कि ये मुक़ाबला इतना एकतरफ़ा क्यों दिख रहा है तो इसके लिए आपको पूर्व के कुछ  चुनावों के परिणाम देखने होंगे. सबसे पहला 2010 का विधानसभा चुनाव का परिणाम देखना होगा. उस ज़माने में एनडीए के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लालू यादव सीधे चुनौती दे रहे थे. वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्हें बिहार में चुनाव प्रचार की अनुमति भी नीतीश कुमार का अल्पसंख्यक वोटर नाराज़ ना हो जाए इसलिए नहीं थी. इस चुनाव में लालू यादव और रामविलास पासवान साथ थे और यह बात अलग है कि कांग्रेस पार्टी अकेले चुनाव मैदान में उतरी थी. लेकिन जब परिणाम आए तो NDA को 206 सीटों पर विजय मिली और राष्ट्रीय जनता दल 22 सीटों पर सिमट गई. राबड़ी देवी सोनपुरा राघोपुर दोनों सीटों से चुनाव हार गईं.

इसके बाद 2019 का लोकसभा चुनाव हुआ जब पहली बार 1999 के बाद नीतीश, BJP, पासवान एक साथ थे और सामने मुक़ाबला तेजस्वी यादव, कांग्रेस, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश मल्लाह से था. भले ही वो लोकसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर हो रहा हो लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो एक किशनगंज की सीट को छोड़कर जिस पर कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार मात्र कुछ हज़ार वोटों से जीते,  NDA के उम्मीदवार सभी 39 सीटों पर जीते. इसलिए बिहार के चुनाव में जो सामाजिक समीकरण हैं वो पूरे तरीक़े से नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले NDA के पक्ष में दिख रहा है. बिहार की राजनीति की यह एक सच्चाई कल थी और आज भी है कि यहां पर सामाजिक समीकरण मुद्दों पर भारी पड़ता है. इसका लाभ लालू यादव को भी मिला और अब नीतीश इसका सत्ता में बने रहने के लिए भरपूर फ़ायदा उठा रहे हैं.

यह बात अलग है कि नीतीश कुमार 2005 का अक्टूबर-नवंबर का चुनाव हों या 2010 का विधानसभा चुनाव या 2015 तक उसकी तुलना में उनकी लोकप्रियता निश्चित रूप से कम हुई है. जब से उन्होंने शराब बंदी लागू की है बिहार में एक समानांतर अर्थव्यवस्था क़ायम हुई है जिससे उनके मातहत पुलिस विभाग के वरीय से लेकर नीचे स्तर के अधिकारी की मिलीभगत से शराब का अवैध कारोबार होता है. हफ़्ते में कम से कम एक दर्जन ऐसी घटनाएं होती हैं. पुलिस वालों की पिटाई इस धंधे में लगे लोग दिन दहाड़े कर देते हैं. इसके कारण नीतीश कुमार की सरकार का और उनका अपना इकबाल कम हुआ है. इसके अलावा बिहार में शिक्षा व्यवस्था पूरी चरमरा गई है. अधिकांश शिक्षक की  डिग्री और उनकी पढ़ाई दोनों किसी छात्र का भविष्य तो नहीं बना सकते लेकिन बिगाड़ ज़रूर सकते हैं. इसी तरीक़े से राज्य में शायद ही ऐसा कोई दफ़्तर हो जहां बिना पैसे दिए हुए आप कोई काम करवा सकते हैं. भ्रष्टाचार के सामने आप कह सकते हैं नीतीश कुमार ने बिलकुल सरेंडर कर दिया है. अगर ऐसा न होता जो 19 सौ करोड़ का सृजन घोटाला हुआ आज बिहार में डबल इंजन की सरकार होने के बावजूद इस मामले के मुख्य आरोपी आराम से इसलिए घूम रहे हैं कि अगर वे पकड़ में आ गए और मुंह खोल दिया तो NDA के कई नेताओं की पोल खुल सकती है .

लेकिन सबसे ज़्यादा नीतीश कुमार का राजनीतिक ग्राफ कोरोना के बाद गिरा है क्योंकि प्रवासी मज़दूरों को लाने के नाम पर उन्होने जैसा अपना स्टैंड रखा उससे सभी को दिक़्क़त हुई. हज़ारों लोगों को पैदल आना पड़ा. हालांकि इसका लाभ कोई राष्ट्रीय जनता दल को नहीं मिल सकता क्योंकि उसके पीछे की एक ज़मीनी सच्चाई यही है कि मान लीजिए अगर आप अति पिछड़ी जाति से आते हैं या कुशवाहा जाति से या महादलित समुदाय से तो आप कितना भी कष्ट हो जाए वोट डालने के समय आप जिसमें राजनीतिक शक्ति है आप उसी को वोट देंगे. मतलब नीतीश को फ़ायदा इस बात का नहीं होगा कि उनका शासन बहुत अच्छा है बल्कि उनके सामने तेजस्वी यादव है जिनकी शक्ति और कमज़ोरी दोनों उनके माता पिता का वोट बैंक और उनका 15 वर्षों का शासनकाल है. और यही नीतीश कुमार के लिए आज के दिन में सबसे बड़ी ताक़त और भविष्य में राज करने का रहस्य भी है.

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