ताइवान, हाँगकाँग, तिब्बत – सब जगह चीन की धोखेबाज़ी

आज की स्थिति में चीन तिब्बत पर पूरा अधिकार बनाए हुये है। दलाई लामा भारत में शरण लिए हुये हैं। भारत में ही तिब्बत की निर्वासित सरकार है लेकिन वास्तव में इस सरकार का कोई मतलब नहीं है। तिब्बत की आज़ादी को लेकर दुनिया के सभी देश मौन हैं।

लखनऊ। चीन की 22117 किलोमीटर लंबी सीमा 14 अलग अलग देशों के साथ लगी हुई है। इनमें से कई देशों के साथ चीन सीमा के विवाद हैं। 1949 से चीन ने बहुत छोटे द्वीपों से लेकर पूरे पूरे प्रान्तों तक पर अपना दावा ठोंका है। कुछ विवाद तो शांतिपूर्वक सुलझ गए लेकिन कुछ में पूरा युद्ध हो गया और कुछ अभी तक सुलग रहे हैं।

2000 के बाद से समु्द्री विवाद को तरजीह

जैसे जैसे चीन की आर्थिक शक्ति बढ़ी है उसने अपनी सेनाओं पर खर्च भी बढ़ा दिया है। इन्हीं सेनाओं की तैनाती करके चीन अपने दावों को मजबूती देता रहता है। अस्सी के दशक से आगे चीन माओवादी विदेश नीति को छोड़ कर अपने पड़ोसियों के साथ सीमा के विवाद सुलझाने के लिए काम करने लगा लेकिन भारत के साथ उसने ऐसा नहीं किया।

2000 के बाद से चीन ने समुद्री विवाद को तरजीह देना शुरू कर दिया और इसका नतीजा जापान के साथ पूर्व चीन महासागर, ताइवान और दक्षिण चीन महासागर विवादों के रूप में सामने आया है। चीन का सबसे बड़ा विवाद ताइवान के साथ है। चीन का कहना है कि ताइवान उसका एक विद्रोही प्रांत है। चीन ने नेपाल और भूटान के कई क्षेत्रों पर भी दावा ठोंक रखा था।

चीन का सीमा विवाद पाकिस्तान के साथ भी था लेकिन पाकिस्तान ने अक्साइ चिन का इलाका चीन के हवाले करके समझौता कर लिया। रूस के साथ भी चीन का झगड़ा रहा है।

1969 में रूस के साइबेरिया और चीन के मंचूरिया इलाकों के बीच स्थित एक छोटे से द्वीप को लेकर लड़ाई भी हुई थी जिसमें कई महीनों तक संघर्ष चलता रहा और 100 से अधिक सैनिक मारे गए। बाड़े में 1991 में दोनों देशों के बीच एक सीमा समझौता हुआ जिसमें उस द्वीप पर चीन के हक को स्वीकार कर लिया गया।

चीन – ताइवान विवाद

ताइवान को लेकर इन दिनों चीन और अमेरिका में विवाद चल रहा है। जहां अमेरिका ताइवान के लोकतंत्र पर चीन के दखल का विरोध जता रहा है, वहीं चीन ने भी ताइवान को धमकी दी है कि अगर ताइवान एकीकरण के लिए तैयार नहीं हुआ तो उस पर हमला किया जाएगा।

चीन के सेंट्रल मिलिट्री कमिशन के सदस्य और जॉइंट स्टाफ डिपार्टमेंट के प्रमुख ली झुओचेंग ने कहा है कि ताइवान को आजाद होने से रोकने का अगर कोई और रास्ता नहीं बचेगा तो चीन पर उस पर हमला करेगा।

इसके जवाब में ताइवान ने कहा है कि चीन ऐसा करने की हिमाकत न करे वरना उसे उचित जवाब दिया जाएगा। ताइवान ने कहा है कि चीन की कोई भी कार्रवाई अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन होगी।

सम्पूर्ण राष्ट्र का दर्जा नहीं

दरअसल, चीन और ताइवान के बीच एक अनोखा विवाद है। ताइवान एक देश है जिसकी अपनी सरकार, अपना राष्ट्रपति, अपनी मुद्रा और अपनी सेना है फिर भी इसे सम्पूर्ण राष्ट्र का दर्जा नहीं मिला है।

आधिकारिक तौर पर इसका नाम ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ है और चीन यानी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना उसे संप्रभु राष्ट्र नहीं मानता है। इन दोनों देशों के बीच दुश्मनी भी है और दोस्ती भी। है और ताइवान केवल ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’।

इतिहास में जाएँ तो चीन में साल 1644 में चिंग वंश सत्ता में आया। 1895 में चिंग ने ताइवान द्वीप को जापानी साम्राज्य को सौंप दिया। 1911 की क्रांति में चिंग वंश को सत्ता से हटना पड़ा और चीन में कॉमिंगतांग की सरकार बनी। कॉमिंगतांग सरकार के दौरान चीन का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना कर दिया गया था।

दो चाइना

1949 में चीन में हुए गृहयुद्ध में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने चियांग काई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को हराया लेकिन माओ की सेना ताइवान पर नियंत्रण नहीं कर सकी। कम्युनिस्टों से हार के बाद कॉमिंगतांग ने ताइवान में जाकर अपनी सरकार बनाई।

इस बीच दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार हुई तो उसने कॉमिंगतांग को ताइवान का नियंत्रण सौंपा। इस बीच यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि जापान ने ताइवान किसको दिया।

माओ का मानना था कि जीत जब उनकी हुई है तो ताइवान पर उनका अधिकार है जबकि कॉमिंगतांग का कहना था कि वह आधिकारिक रूप से चीन का प्रतिनिधित्व करते हैं। उधर माओ की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सरकार बनाई और देश को नया नाम दिया – पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना। इसके बाद से दोनों ‘चाइना’ खुद को आधिकारिक चीन बताते रहे और इसी आधार पर विश्व समुदाय से मान्यता चाहते रहे हैं।

चीन ने खारिज करा दी ताइवान की सदस्यता

शुरू में ताइवान संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य था और चीन नहीं। धीरे-धीरे अमेरिका के संबंध चीन से अच्छे होने लगे और विश्व में चीन का दबदबा बढ़ने लगा तो सन् 1971 में चीन को संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता मिल गई और चीन के दबाव में ताइवान की सदस्यता खारिज कर दी गई।

चीन ने ताइवान को अपना प्रांत घोषित कर दिया। धीरे-धीरे चीन के राजनीतिक दबाव की वजह अन्य राष्ट्रों ने भी ताइवान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए। ताइवान में 2000 के चुनावों में स्वतंत्र ताइवान समर्थकों की जीत हुई किंतु चीन ने चेतावनी दे दी कि उसे ताइवान की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं है।

आठ वर्षों के इस दल के शासन में कई बार ऐसे अवसर आए जब चीन और ताइवान युद्ध पर उतारू हो गए थे। किसी भी किस्म की स्वतंत्रता घोषित करने या चीन के साथ एकीकरण में अनिश्चितकालीन विलंब करने के विरुद्ध ताइवान को कई बार चीन से धमकियां मिल चुकी हैं।

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कूटनीतिक तौर पर अकेला पड़ जाने के बावजूद ताइवान की गिनती एशिया के सबसे बड़े कारोबारी देश के तौर पर होती है। यह कंप्यूटर टेक्नॉलजी के उत्पादन के मामले में दुनिया का अग्रणी देश है और इसकी अर्थव्यवस्था भी बहुत मज़बूत है। चीन और ताइवान के बीच व्यापारिक संबंध भी बने हुये हैं।

चीन का हाँगकाँग पर पूरा कंट्रोल

चीन की संसद ने हांगकांग के लिए एक नए विवादास्पद सुरक्षा कानून को मंजूरी दी है जिससे हाँगकाँग में चीन के अधिकार को कमजोर करना एक अपराध हो जाएगा। इस नए कानून से चीनी सुरक्षा एजेंसियां पहली बार हांगकांग में अपने प्रतिष्ठान खोल सकती हैं।

हांगकांग में अधिकारियों ने कहा है कि यह कानून बढ़ती हिंसा और ‘आतंकवाद’ पर लगाम लगाने के लिए आवश्यक है लेकिन आलोचकों को कानून के दुरुपयोग का डरा।  इस कानून से बीजिंग में नेतृत्व पर सवाल उठाने, प्रदर्शन में शामिल होने और स्थानीय कानून के तहत अपने मौजूदा अधिकारों का उपयोग करने के लिए हांगकांग निवासियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है।

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इस विवादित कानून से चीन के राष्ट्रगान का अपमान करना अपराध के दायरे में आ जाएगा। अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ने नए सुरक्षा कानून की निंदा करते हुए इसे हांगकांग वासियों की आजादी पर हमला बताया हैं। अमेरिका ने चीन पर व्यापक प्रतिबंधों की चेतावनी तक दे दी है।

ब्रिटेन का अहम रोल

दरअसल, 1842 में ब्रिटेन और चीन में युद्ध हुआ था जिसमें चीन को हार का सामना करना पड़ा और उन्हें हांगकांग का इलाका ब्रिटेन को देना पड़ा। इसके 60 साल के भीतर आसपास के 237 अन्य इलाके ब्रिटेन को 99 साल की लीज़ पर दे दिये गए।

चीन और ब्रिटेन के इस समझौते को ‘कन्वेंशन फॉर द एक्सटेंशन ऑफ़ हॉन्ग कॉन्ग टेरेटरी’ का नाम दिया गया। इस समझौते के बाद ब्रिटेन ने हांगकांग को एक देश की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। ब्रिटेन और चीन के बीच हुई ये लीज 1997 तक वैध थी।

1 जुलाई 1997 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर और प्रिंस चार्ल्स ने हांगकांग को चीन के हवाले कर दिया लेकिन एक शर्त पर कि चीन को हांगकांग को स्पेशल स्टेटस देना होगा जिसके तहत अगले 50 साल तक हांगकांग को राजनैतिक आज़ादी देनी होगी।

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चीन की पुरजोर कोशिश

ब्रिटेन से हांगकांग को वापिस लेने के बाद चीन लगातार हांगकांग को चीन बनाने की कोशिश करने लगा वहीं दूसरी ओर हांगकांग चाहता था की अब उन्हें लोकतंत्र की आज़ादी मिल जाये।

2007 में चीन ने हांगकांग से कहा कि वो 2017 में सभी वयस्कों को वोट डालने का अधिकार दे देगा लेकिन 2014-15 में चीन ने हांगकांग में चुनाव सुधार के नाम पर एक नया कानून थोपने की कोशिश की।

इसके मुताबिक हांगकांग में होने वाले चुनावों के लिए उम्मीदवार तय करने की जिम्मेदारी 1200 सदस्यों वाली एक कमिटी की होगी। जनता ने चीन के इस नए कानून का पुरज़ोर विरोध किया। 79 दिनों तक चले अंब्रेला मूवमेंट के बाद लोकतंत्र का समर्थन करने वालों पर चीनी सरकार कार्रवाई करने लगी।

हांगकांग के लोगों का दमन

विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों को जेल में डाल दिया गया। कहने को हांगकांग का अपना कानून और सीमाएं हैं। साथ ही खुद की विधानसभा भी है। लेकिन हांगकांग में नेता, मुख्य कार्यकारी अधिकारी को 1,200 सदस्यीय चुनाव समिति चुनती है। समिति में ज्यादातर बीजिंग समर्थक सदस्य होते हैं।

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हांगकांग में ज्यादातर लोग चीनी नस्ल के हैं। चीन का हिस्सा होने के बावजूद हांगकांग के अधिकांश लोग चीनी के रूप में पहचान नहीं रखना चाहते हैं। ही कारण है कि हांगकांग में हर रोज आजादी के नारे बुलंद हो रहे हैं और प्रदर्शनकारियों ने चीन समर्थित प्रशासन की नाक में दम कर रखा है।

धोखे से तिब्बत पर किया कब्जा

तिब्बत प्राचीन काल से राजवंश के अधीन और एक धर्मतांत्रिक राज्य रहा है। तिब्बत ने किसी अंग्रेज़ को कभी अपने यहाँ नहीं आने दिया इस वजह से ये ब्रिटेन के लिए एक रहस्य बना रहा था।

लगभग 2 हजार साल तक तिब्बत एक संप्रभु राष्ट्र रहा लेकिन 18वीं सदी में नेपाल ने यहाँ आक्रमण किया और बदले में चीन ने अपनी सेना उतार दी। इसके बाद से चीन का वहाँ दखल बन गया।

1912 में चीन से मांचू शासन का अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को दोबारा स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था। सन् 1913-14 में चीन, भारत और तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई, जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी दो भागों में विभाजित कर दिया गया।

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इसमें पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के चिंगहई एवं सिचुआन प्रांत हैं उसे इनर तिब्‍बत कहा गया। जबकि पश्चिमी भाग जो बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में रहा उसे आउटर तिब्‍बत कहा गया।

चीनी घेराबंदी बढ़ी

सन् 1933 में 13वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद आउटर तिब्बत भी धीरे-धीरे चीन के घेरे में आने लगा था। 14वें दलाई लामा ने 1940 में शासन भार संभाला। 1950 में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंचेन लामा के चुनाव को लेकर दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई और चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया।

भारत की आज़ादी के दो साल बाद 1949 में चीन में कम्यूनिस्ट सरकार की स्थापना हुई। 1950 में चीन ने तिब्बत को अपना क्षेत्र घोषित कर दिया। तिब्बत पर चीन के दावे को लेकर सरदार पटेल ने चिंता व्यक्त की थी और जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा था। लेकिन नेहरू ने इसको ज्यादा तरजीह नहीं दी। भारत ने उस समय तिब्बत को मान्यता नहीं दी जो एक बहुत बड़ी भूल मानी जाती है।

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तिब्बत ने 23 मई 1951 को चीन द्वारा प्रस्तावित समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत विदेश नीति, सुरक्षा आदि तमाम अधिकार चीन को दे दिये गए। इस तरह तिब्बत को पूरी तरह चीन के एक राज्य के रूप में बदल दिया गया।

दुनिया के देश मौन

1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया लेकिन 1954 में नेहरू ने तिब्बत को एक समझौते के तहत चीन का हिस्सा मान लिया था। 1951 की संधि के अनुसार यह साम्यवादी चीन के प्रशासन में एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया।

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इसी समय से असंतोष की आग सुलगने लगी लेकिन बलप्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। चीन द्वारा चलाए गए दमन चक्र से बचकर किसी प्रकार दलाई लामा नेपाल से होते हुए भारत पहुंचे। मौजूदा समय में चीन के अनुगत पंछेन लामा यहां के नाममात्र के प्रशासक हैं।

आज की स्थिति में चीन तिब्बत पर पूरा अधिकार बनाए हुये है। दलाई लामा भारत में शरण लिए हुये हैं। भारत में ही तिब्बत की निर्वासित सरकार है लेकिन वास्तव में इस सरकार का कोई मतलब नहीं है। तिब्बत की आज़ादी को लेकर दुनिया के सभी देश मौन हैं।

नीलमणिलाल की रिपोर्ट