
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अपनी करीब ढाई दशक पुरानी दुश्मनी भुलाकर लोकसभा चुनाव 2019 में एक साथ आए थे, लेकिन चुनाव खत्म होने के महज दो हफ्तों के भीतर ही सपा और बसपा के बीच बना गठबंधन खत्म हो चुका है।
जब दोनों पार्टियों का गठबंधन हुआ था तब राजनीतिक पंडितों का आकलन था कि यह दोस्ती यूपी में बीजेपी के लिए संकट खड़ा कर देगी, लेकिन पांच महीने बाद यह दोस्ती खुद संकट में है। मायावती ने महागठबंधन पर अस्थायी ब्रेक लगा दिया है। इसकी वजह बताया कि सपा के वोटर्स ने बसपा का साथ नहीं दिया, लेकिन अब सवाल यही उठ रहा है कि आखिर मायावती ने अखिलेश को ऐसे एकाएक झटका क्यों दिया?
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मायावती ने यूपी में गठबंधन टूटने के संकेत देने के साथ ही अखिलेश यादव को नसीहत भी दे डाली। हालांकि गठबंधन तोड़ने के पीछे जानकार दो अनुमान जता रहे हैं। पहली लोकसभा चुनावों के दौरान संभावित पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर अखिलेश ने मायावती के नाम पर सहमति दे दी थी। इसका मतलब हुआ कि साल 2022 के चुनाव में मायावती को मुख्यमंत्री पद पर अखिलेश के नाम का समर्थन करना होता। मायावती ने इस संभावना को अपने प्रेस कांफ्रेस के साथ खत्म कर दिया।
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मायावती को जब राष्ट्रीय राजनीति में कुछ हासिल नहीं हुआ है तो बसपा सुप्रीमो यूपी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में खुद को दोबारा स्थापित करना चाहती हैं। अस्थायी ब्रेक-अप को सपा पर दबाव बनाने की कवायद के रूप में भी देखा जा रहा है।
दूसरी बड़ी वजह है कि मायावती फिलहाल किसी सदन की सदस्य की नहीं हैं। अगले साल राज्यसभा के चुनाव होंगे तो सीटों के हिसाब से सपा का एक सदस्य राज्यसभा जा सकता है। यूपी में राज्यसभा जाने के लिए 35 सीटों के आसपास जरूरत होती है। 2017 के चुनावी नतीजों के वक्त 19 सीट बसपा और 47 सीट सपा को मिली थी। उपचुनावों के बाद समाजवादी पार्टी के कुछ सदस्य बढ़े हैं, क्योंकि मायावती ने उपचुनाव नहीं लड़ा।
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ऐसे में दूसरी सीट से मायावती को राज्यसभा जाने के लिए पूरी तरह अखिलेश पर निर्भर होना पडेगा। इसीलिए पहली बार मायावती ने उपचुनाव भी लड़ने का ऐलान कर दिया। दूसरे उपचुनावों के नतीजों के बाद अगर बसपा ने सपा से ज्यादा सीटें जीत लीं तो मायावती गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर दावा ठोंकेंगी और यह भी कह सकती हैं कि अगर साथ रहना है तो मानना पडेगा।
वहीं मायावती के यादव वोटों का साथ न देने का बयान भी बहुत सोचा समझी रणनीति है। इससे उन्होंने दो बड़ी बातें इशारों में कह दी। पहली ये कि अखिलेश यादव का यादव वोटों पर वो एकाधिकार नहीं है जो मुलायम-शिवपाल की जोड़ी का हुआ करता था। दूसरा अखिलेश केवल यादवों के नेता हैं और उनका वोट बैंक केवल यादव है जो पूरी तरह उनके साथ नहीं है।