अंग्रेजों ने शिक्षा पद्धति को जान-बूझकर कमजोर किया

Published on July 8, 2018 by   ·   No Comments

आई एन वी सी न्यूज़
जयपुर,
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री डॉ. अरूण चतुर्वेदी ने शिक्षा में संस्कारों का अधिकाधिक समावेश कर शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने का आह्वान किया। डॉ. चतुर्वेदी शैक्षिक मंथन संस्थान की ओर से रविवार को जयपुर में ‘‘उच्च शिक्षा में नैतिकता एवं कार्य संस्कृति’’ विषय पर आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित कर रहे थे।

मंत्री डॉ. अरूण चतुर्वेदी ने कहा कि अंग्रेजों ने इस देश की रीढ़ माने जाने वाली समृद्ध शिक्षा पद्धति को जान-बूझकर कमजोर किया। विशेष रूप से सांस्कृतिक मूल्यों को आघात पहुंचाया। शिक्षा प्रणाली आज केवल डिग्रियां हासिल करने तक सीमित हो गई है। हमें शिक्षा में संस्कारों का समावेश करना होगा। उन्होंने कहा कि मां हमारी प्रथम शिक्षक होती है और वह हमें संस्कारवान बनाती है। उसी प्रकार शिक्षा प्रणाली भी संस्कार प्रदान करने वाली होनी चाहिए।

मुख्य वक्ता विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष प्रो. डी.पी. सिंह ने बताया कि शिक्षक का सभ्य आचरण तथा सुसभ्य व्यक्तित्व विद्यार्थियों के लिए आदर्श स्थापित कर सकते है। उन्होंने पं. मदन मोहन मालवीय का उल्लेख करते हुए कहा कि महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय विद्यार्थी की नर्सरी होते है। उन्होंने उच्च शिक्षण संस्थानों में ‘‘आनन्द विभाग’’ खोले जाने का अनूठा प्रस्ताव किया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. जे.पी. सिंघल ने बताया कि संस्कृति का निर्माण आपका कार्य, व्यवहार और आचरण ही करता है। अच्छी संस्कृति में हम कुछ मानदण्ड स्थापित कर सकेंगे जिसमें नैतिकता उच्चतम होगी। यदि वह कमजोर होगी तो अराजकता की स्थितियां बनेगी। शिक्षक अपने आचरण से ही संस्कृति का पोषक बनता है तथा कार्य संस्कृति का निर्माण कर सकता है।

संगठन मंतर््ी महेन्द्र कपूर ने कहा कि हमारी भारतीय ज्ञान-परम्परा पर जो इतिहास में घात-प्रतिघात हुए है। उनके कारण बहुत समस्या आई है। हमें भारत के प्राचीन जीवन मूल्यों की पुनस्र्थापना का प्रयास करना चाहिए एवं शैक्षिक मंथन संस्थान की ओर से किये जा रहे नवाचारों पर प्रकाश डाला।

इस अवसर पर अतिथियों ने शैक्षिक मंथन पत्रिका के विशेषांक ‘‘शिक्षा और संस्कार’’ का विमोचन किया।

प्रथम तकनीकी सतर्् में नैतिक मूल्यों की स्थापना में शिक्षक की भूमिका विषय पर बोलते हुए डीडीयू के पूर्व कुलपति प्रो. पी.सी. तिर््वेदी ने बताया कि आज शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या विमुक्तये’ के स्थान पर ‘सा विद्या या नियुक्तये’ हो गया है। शिक्षक की गोद में प्रलय और निर्माण दोनोंं पलते है।

केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय ने कहा कि मौजूदा पाठ्यक्रमों में हमारी पुरातन पद्धतियों का तथा प्राचीन ज्ञान का भी समावेश होना चाहिए।

रूक्टा (राष्ट्रीय) के महामंतर््ी डॉ. नारायण लाल गुप्ता ने बताया कि कुशलतापूर्वक कर्म करना योग है, यह वैयक्तिक और सांस्थानिक दोनों स्तर पर लागू होने वाली कार्य संस्कृति है। आज अकार्य संस्कृति पर चलने वालों की संख्या बढ़ रही है। शिक्षक को विद्यार्थी के रूप में चेतनापूर्ण निर्माण किये जाने वाले व्यक्तित्व मिलते है। कार्य संतुष्टि और विद्यार्थी संतुष्टि दोनों एक-दूसरे के पूरक है। शिक्षण संस्थाओं के प्रति समर्पण भाव रखने पर ही कार्य संस्कृति का निर्माण हो सकेगा।

राजस्थान अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड के सदस्य डॉ. नन्द सिंह नरूका ने कहा कि शिक्षक के रूप में जो भी कार्य हमें आवंटित है उसको हम पूरी प्रतिबद्धता से पूर्ण करते है तभी हमारी कार्य संस्कृति होनी चाहिए।

अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के सचिव प्रो. मनोज सिन्हा ने कहा कि उच्चतर शिक्षा में आते-आते विद्यार्थी में निर्माणात्मक सुधार की संभावना कम रहती है। क्योंकि संस्कार प्रशिक्षण का कार्य प्रथमिक स्तर पर हो चुका होता है। शिक्षकों ने अपने-अपने शोध पतर्् भी प्रस्तुत किये।
समापन सतर्् में मुख्य अतिथि पेसिफिक विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. भगवती प्रसाद शर्मा ने कहा कि भारत में नैतिकता की मर्यादा बहुत ऊँची है। शिक्षक स्वयं के ज्ञानार्जन के साथ शोध, उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में नैतिकता बहुत मुख्य है।

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि डॉ. विमल प्रसाद अग्रवाल ने बताया कि नैतिकता के बिना शिक्षा अधूरी है। जो जीवनभर काम आती है। संस्थान के सचिव डॉ. ग्यारसी लाल जाट ने संस्थान की चलने वाली गतिविधियों पर प्रकाश डाला। इस अवसर पर पूरे देश से पहुंचे शिक्षक एवं गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे।