लखनऊ: उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर सीट के लिए होने वाले लोकसभा उपचुनाव पर देश भर की नजर लगी हुई है. एक सीट सूबे के मुख्यमंत्री की है और और दूसरी उपमुख्यमंत्री की. इनमें से खासकर फूलपुर की सीट का टकराव कफी अहम माना जा रहा है. माना जा रहा है कि इसके नतीजे 2019 के राजनीतिक समीकरण तय करने के लिहाज से भी अहम होंगे. इसलिये फूलपुर में बीजेपी ने रैलियों की झड़ी लगा दी है. पहली बार हासिल ये सीट वो खोना नहीं चाहती. जबकि बीएसपी ने यहां उम्मीदवार न उतार कर और सपा को समर्थन देने का एलान कर उसकी चुनौती कड़ी कर दी है.
हालांकि, बीजेपी इसके असर से इनकार कर रही है. मंत्री नंद कुमार नंदी कहते हैं कि "ये आसमानी समर्थन है, जिसका ज़मीन पर कोई लेना देना नहीं. दो लोग आसमान में हाथ मिला लिए. जब समाजवादी पार्टी की सरकार थी, गुंडे माफिया थानों को निर्देशित किया करते थे. जब दलित लोग पिटे और जब मुकदमा लिखाने गए तब भी पिटे, तो क्या जमीन पर हो पायेगा? ये विनाश काले विपरीत बुद्धि है.
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फूलपुर एक ऐतिहासिक सीट रही है. यहां से नेहरू जीते, यहां से राम मनोहर लोहिया ने उनको चुनौती दी और हारे. यहां से विजयलक्ष्मी पंडित जीतीं, यहां से कांशीराम चुनाव लड़े, यहीं से वीपी सिंह 1971 में जीते. छोटे लोहिया कहलाने वाले जनेश्वर मिश्र ने भी अपना परचम लहराया था. 2014 से पहले सपा लगातार चार बार ये सीट जीतती रही. लेकिन 2014 के मोदी लहर में केशव मौर्य ने यहां कमल खिलाया. पांच लाख से ज़्यादा वोटों से जीते. फूलपुर का महत्व इसलिए भी ख़ास है,.
अगर बीजेपी यहां हारती है तो इसके राजनीतिक मायने बड़े होंगे. पहला संदेश ये जाएगा कि हिंदी पट्टी में मोदी का जादू अपने चरम पर जा चुका है और अब उतार पर है. दूसरी बात कि बीएसपी-सपा गठबंधन 2019 में बीजेपी को मात दे सकती है और तीसरी बात कि फूलपुर गैर यादव ओबीसी के दबदबे वाला इलाका है, जहां बीजेपी की पैठ मानी जाती है. माना जाएगा कि बीजेपी का ये किला भी दरक रहा है.
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बीएसपी ये साफ कह चुकी है कि वो बीजेपी को हराने की रणनीति पर ही अमल करेगी. फूलपुर 19 लाख से ज्यादा वोटों की सीट है. इसमें 50 फ़ीसदी ओबीसी वोट हैं- सबसे ज़्यादा पटेल, दलित, मुस्लिम और अगड़े 15-15 फीसदी हैं.
बेशक, इनमें से कुछ वोट कांग्रेस भी काटेगी जो सपा-बसपा से अलग है. कांग्रेस के अभय अवस्थी कहते हैं कि "कांग्रेस बड़ी तेजी से उभर कर आई है. भारतीय जनता पार्टी के डिप्टी सीएम ने यहां से लड़ा था और अब वो डिप्टी सीएम हो गए तो उन्होंने ये सीट छोड़ कर अपमान किया. दूसरी तरफ सपा और बसपा है, जो एक नया राजनितिक सन्देश दे रही है. उत्तर प्रदेश में एक कहावत है 'निकाह कबूल है... कबूल है', उसी तर्ज पर मायावती और अखिलेश के पार्टी के लोग सन्देश दे रहे हैं कि चीर हरण मंज़ूर है... मंजूर है.
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लेकिन बीजेपी को सबसे ज़्यादा फायदा अतीक अहमद की उम्मीदवारी से मिल सकता है. क्योंकि कांटे की इस लड़ाई में मुस्लिम वोट बंटे तो वह समीकरण बदलेगा जो सपा-बसपा बना रही है. दरअसल माना यही जा रहा है कि फूलपुर 2019 के राजनीतिक समीकरणों का पहला प्रयोग हो सकता है. राजनीतिक चिंतक बद्री नारायण इसे और परिभाषित करते हैं, "ये सिर्फ बाई पोल नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश के राजनीति की पूर्व पीठिका है. इससे 2019 की पोलिटिकल क्लाइमेट बनने जा रही है. इसलिए बीजेपी भी इसे पूरी गंभीरता से ले रही है. जबसे अलायंस की घोषणा हुई है तब से बीजेपी और 'अलर्ट' हुई है.
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