शिक्षा का डिमोनेटाइजेशन होगा यह

बच्चों के बस्तों के बोझ को कम किये जाने की जरूरत दशकों से की जा रही है. लेकिन यदि यह नहीं हो पा रहा है, तो निश्चित रूप से इसके पीछे कोई ठोस और मजबूत शक्ति काम कर रही होगी. दरअसल, यह शक्ति शिक्षा माफियाओं की शक्ति है. इनके पास शिक्षा के नाम पर बड़े-बड़े भवन हैं, ढेर सारी दिखावटी एवं अनावश्यक सुविधायें हैं.

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शिक्षा का डिमोनेटाइजेशन होगा यह
जैसा कि हमारे मानव-संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेड़ेकर जी ने कहा है कि ‘‘बच्चों पर पढ़ाई का तनाव कम किया जा सके, इसके लिये एनसीईआरटी का स्कूली कोर्स आधा किया जायेगा’’. यदि सचमुच में यह हो सका, तो यह शिक्षा के क्षेत्र का या तो डिमोनेटाइजेशन होगा या सर्जिकल स्ट्राइक. मोदी जी  के शासन के अंतिम साल में नई शिक्षा नीति आनी है. हांलाकि इसे शासन के शुरुआत में ही आ जानी चाहिए थी. फिर भी देर आये दुरुस्त आये. लेकिन ऊपर से इतना सरल और आसान-सी दिखने वाली इस नीति का लागू होना उतना ही सरल और आसान नहीं होगा?

बच्चों के बस्तों के बोझ को कम किये जाने की जरूरत दशकों से की जा रही है. लेकिन यदि यह नहीं हो पा रहा है, तो निश्चित रूप से इसके पीछे कोई ठोस और मजबूत शक्ति काम कर रही होगी. दरअसल, यह शक्ति शिक्षा माफियाओं की शक्ति है. इनके पास शिक्षा के नाम पर बड़े-बड़े भवन हैं, ढेर सारी दिखावटी एवं अनावश्यक सुविधायें हैं. इन सबके नाम पर ऊँची-ऊँची फीस वसूली जा रही है. इनकी विशाल अट्ठालिकाओं ने छोटे और सरकारी स्कूलों को बुरी तरह कुंठित करके शिक्षा की मुख्य धारा से बाहर कर दिया है. इन तथाकथित पब्लिक स्कूलों में यदि किसी के लिए जगह नहीं है, तो वह पब्लिक के लिए.

इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण उस समय मिला था, जब अजीत जोगी नवनिर्मित प्रदेश छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने थे. उन्होंने इंजीनियरिंग और मेडिकल में जाने के लिए प्रवेश परीक्षाओं की व्यवस्था को हटा दिया था. ऐसा करते ही करोड़ों कमाने वाले कोचिंग संस्थानों के हाथ के तोते उड़ गए थे. इस घोषणा को वापस ले लिया. सोचने की बात है कि ऐसा क्यों हुआ ?
आप सोच रहे होंगे कि इस तथ्य का एनसीईआरटी के सिलेबस को आधा करने से भला क्या संबंध है? संबंध है, और वह यह कि यदि आपको शिक्षा को बेचना है, तो आपको शिक्षा का भय दिखाना होगा. भय जितना अधिक होगा वह चीज़ उतनी अधिक बिकेगी और उतनी ही अधिक ऊँची कीमत पर बिकेगी. शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय, इन तीनों के साथ आज यही हो रहा है.

सिलेबस कम करने का मतलब है शिक्षा के भय को कम कर देना, शिक्षा की ऊँची-ऊँची दुकानों की जरूरतों की अनदेखी करना, उनके व्यापारिक हितों पर चोट पहुँचाना.

साथ ही इसकी जो दूसरी समानान्तर लाइन ट्यूशन की है, इस पर भी आघात करना. यह कम आश्चर्य और चिन्ता की बात नहीं है कि तथकथित अच्छे-अच्छे और महंगे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को अपनी खूबसूरत शामें ट्यूटरों के छोटे से बंद कमरों में गुजारनी पड़ती हैं. क्यों? सिर्फ इसलिए, क्योंकि कोर्स बहुत ज्यादा है.

यदि आपको कभी समय मिले, तो आप खासकर 9वीं, 10वीं की किताबें उठाकर देखें. यदि आपको इस उम्र में भी वे समझ में आ जायें, तो आप स्वयं को अरस्तू समझ लीजिएगा. फिर वे सब जानकारियां जीवन में कितनी काम की हैं, उसके बारे में तो सोचने की जरूरत ही नहीं है. सचमुच, आश्चर्य इस बात पर होता है कि शिक्षा से जुड़े नामी लोगों की समिति द्वारा तैयारी की गई पुस्तकें भला ऐसी कैसे हो सकती हैं? इन पुस्तकों पर पूंजीवादी आवश्यकताओं के दबाव का प्रभाव साफतौर पर दिखाई देता है.

लेकिन यहाँ एक बड़ा पेंच और भी है. वह यह कि कोर्स को आधा ही नहीं करना है, बल्कि सरल और सहज भी करना है. इसके बिना षिक्षा को न तो पूंजी की जकड़न से मुक्ति मिलेगी और न ही अरुचि से. गुरू गोरखनाथ ने कहा था ‘‘खेलब खाइब करिबै ध्यान.’’ यदि खेलते और खाते हुए ध्यान तक किया जा सकता है, तो फिर भला पढ़ाई क्यों नहीं.
इस प्रकार मुझे जावड़ेकर जी की यह बात पुस्तकों को पूंजी की गुलामी से मुक्त कराने के साथ बच्चों को पुस्तकों की गुलामी से मुक्त कराने की बात भी लगती है. उनका यह काम निश्चित रूप से संविधान में व्यक्त समतावादी ही समाज की स्थापना के संकल्प को पूरा करने की दिशा में उठाया गया एक मूलभूत और अनिवार्य क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा. ईश्वर से प्रार्थना है कि ‘बस यह हो जाये.’

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
 
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.


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